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Wednesday, 30 August 2023






आयआयटी/नीट कोचिंग  :

शिक्षा या ब्यापार ?

आज कल शिक्षा के मायने बदल चुके है। जो तुरन्त नोकरी दें वही शिक्षा। इसी कारण कोई भी दसवी कक्षा पास छात्र आर्ट्स, कॉमर्स जैसे पारंपरिक डिग्री लेने में दिलचस्पी नही रखता। माता पिता को हर हालत में अपना बेटा डॉकटर या इंजिनियर चाहिये।  फिर कोचिंग पढाइ में कितना भी खर्च क्यों न हो,  उसकी उन्हे पर्वा नही। अफसोस इस बात का के समाज की यह पक्की धारणा बन चुकी है -जादा पैसा याने 'सक्सेस' याने जादा इज्जत और शोहरत। माता पिता अपने बेटी-बेटोको पढाते इसलीये कि वह मोटा पैसा कमा सकें। यही वजह है के आज कोचिंग का ब्यापार बहोत तेजीमें है। 'जैसी डिमांड वैसी सप्लायी'  इसलीये आज देश के हर शहर के कोने कोने मे कोचिंग के बडे बडे सेन्टर शुरु हो चुके है जिसमे आयआयटी, नीट, बँकिंग या यूपीएससी जैसे क्लासेस शामिल है। शिक्षा एक पवित्र क्षेत्र है लेकिन कुछ असामाजिक तत्व जादा पैसे कमाने की लालच में उसे एक ब्यापार समझ बैठे है और सिधे छात्र के करीयर से खिलवाड हो रहा है। आये दिन समाज मे ऐसें सेकडों किस्से सूनने मिलेंगे, कुछ किस्से इस प्रकार :

पहला किस्सा : महाराष्ट्र का अर्णव बहोत ही होशियार और मेहनती लडका था। एक गरीब किसान होनेके बावजुद पिता रमेश अपने बेटे अर्णव को बडे शहर भेजकर उच्च शिक्षा दिलाना चाहते थे। दसवी कक्षा के नतीजे देख रमेश ने पुत्र अर्णव को शहर के नामचीन 'आयआयटी कोचिंग सेन्टर' में भेजने का निश्चय किया जहाँ के अध्यापक शहर मे मशहूर है। किसान होने के बावजुद पुत्रमोह में उन्होने पाई पाई जुटा कर  आयआयटी शुल्क के लिये ढाई लाख रुपये जूटाये। आयआयटी कोचिंग दो सालकी थी। लेकिन हुवा ऐसें के ग्यारहवी खत्म होने से पहले एक मुख्य अध्यापक ने नौकरी छोड दी और वह किसी और इन्स्टिट्युट से जुड गये।  सबसे अच्छे पढानेवाले अध्यापक ने नोकरी छोडने के कारण सभी बच्चों का करियर अब दांव पे लग चुका था, क्यों की नये अध्यापक के साथ उनकी फ्रेक्युन्सी जम नही रही थी।  छात्र और पालक शिकायत करते रहे लेकिन पैसो से गबर डायरेक्टर टस से मस नही हुए।  नाजूक परिस्थिती के कारण कहीं और क्लास जाना अर्णव और बाकी छात्र को संभव नही था। नतीजा,  सभी विद्यार्थीयोंको राम भरोसे छोड दिया गया, वे कहीं के न रहे। अर्णव आयआयटी एक्झाम में बहोत पिछे रह गया। आज एक मामुली इंजिनियरिंग कॉलेज में वह पढ रहा है।

दुसरा किस्सा :  मध्य प्रदेश के संजय कुमार सरकारी दप्तर मे एक मामुली क्लार्क है।  लेकीन बेटी दिव्या को पढा-लिखा कर डॉक्टर बनाना चाहते थे। पिता का सपना पुरा करने के लिये दिव्या भी पढाई में जुट गयी थी। ट्युशन और शहर में पढाने के खर्च के लिये पिता संजय कुमार बँक से कर्ज ले चुके थे।  लेकिन हुवा ऐसें के अध्यापक के आपसी रंजीश और झगडो के चलते ' नीट मेडिकल कोचिंग इन्स्टिट्युट' बिच मे बंद हुवा। छात्र को भगवान भरोसे छोड दिया गया,  वो कहीं के न रहे। दिव्या मेडिकल को जा न सकी और अब वह बीएस्सी पढ रही है। पालक एकजूट न होने के कारण तितर बिथर हो गये । इंस्टिट्यूट पहले ही सारा पैसे वसूल कर चुका था। उसका कोई बाल भी बाका कर न सका।

ऐसें अनेक किस्से आये दिन समाज मे देखणे-सूनने मिलतें है।  लेकीन समाज में असंवेदनशीलता इस कदर फैल चुकी है के किसी को इन 'फिजुल' बातो से फर्क नही पडता। आज सरकार का कोचिंग उद्योग पर कोई लगाम नही। ताजूब की बात के अखबार मे ऐसें किस्से उच्छाले नही जाते क्योंकी कोचिंग क्लासेस का विज्ञापन अखबार में देकर उनका मुंह बंद किया जाता। हंगामा ना हो इसलीये पुलीस तक बिक जाती है। नुकसान सिर्फ छात्र का होता है।

आज आयआयटी-नीटके कोचिंग का बाजार करोडो-अब्जो मे है। अकेले कोटा मे कोचिंग के लगभग ३०० केंद्र है। बडे शहर का 'ब्रँड'  सेन्टर छात्रको अपनी ओर खिंचने के लिये अखबार मे बडे बडे विज्ञापन देते है। लुभाने के लिये जरूरत पढे तो किसी और सेन्टरकी रँक करोडो रुपये देकर खरीदी/चुराई जाती है। नतिजा, ब्यापार जोरो में बढता है।  फिर कुछ बडे नामचीन अनुभवी अद्यापक को करोडो के पेकेज देकर बुलाया जाता है। लेकीन जैसे ही उन अध्यापकों का छात्रो के साथ जम बैठता है उनमे महत्वकांक्षा पैदा होती है। 'मेहनत करे मुर्गी और फकीर खाए अंडा' । उन्हे डायरेकटर कि मोटी कमाई बरदाश्त नही होती और अब उन्हे भी डायरेक्टर बननेके दौरे पडते है। । फिर वह एक जगह रुकते नही, छात्र को हवा में छोड चले जाते है। और इसी प्रकार एक साल में शहर मे दुसरा इंस्टिट्यून्ट पैदा होता है। फिर यह प्रक्रिया कभी रूकने का नाम नही लेती। चंद सालो में शहर का एक कोचिंग क्लास ८-१० नये क्लास को जन्म देता है।  ताजूब की बात इस प्रक्रिया में छात्र की पढाई, भलाई और करियर की किसी को फिकर कोई नही होता।  पैसा और क्वांटिटी के चक्कर मे शिक्षा की क्वालिटी नही रहती।  सिर्फ पैसा कमाना इतना ही उद्देश बच जाता है।

'गुरु गोविंद दोनो खडे का के लागू पाय...'  भारतीय समाज में गुरु का स्थान ईश्वर के भी उपर है। संत कबीर कहते है गुरु का महिमा लिखने के लिये समंदर की स्याही कम पड सकती है। गुरु जो शिष्य को सही राह पर चलाना सिखाते। गुरु वही जो हर हाल मे शिष्य को समर्पित होते है। गुरु वही गुरु का धर्म निभाते है। गुरु वही जो धन के लोभी नही होते। गुरु वही जिन्हे अपने भविष्य से जादा शिष्य के भविष्य की चिंता है।  इसका मतलब सभी एक जैसे है ऐसा नही, आज समाज मे कुछ अच्छे गुरु है।  लेकिन अफसोस की बात, कुछ कोचिंग के अध्यापक सारे समाजमुल्य, नितीमत्ता, संवेदना बाजू मे रख कर  चंद पैसो के लालच में अपना इमान धर्म छोड के छात्र का नुकसान कर देते है। शिष्य के करियर के साथ नाईंसाफी, खीलवाड करणेवाले अध्यापक क्या सचमूच गुरु कहलाने के लायक भी है?

पालक और छात्र की यह गलती कि वे इंस्टिट्यूट से भावनिक बंधनो मे जुड जाते है।  इसलीये आज जरूरत है पालक वर्ग को निंद से जागने की। इस समस्या के खिलाफ हर स्तरपर जोर शोर से आवाज उठाने की। आज भी देश के कई शहरो मे कोचिंग सेन्टर के साथ पालक वर्ग का लिखित करार नामा बनता है ताकी छात्र के साथ कोई धोका न हो। यह धोका टालने के लिये हर क्लास के पालक अपना ग्रुप तयार करें। पालक समिती और कोचिंग सेन्टर में एक लिखित करारनामा हो जिसमे पढाने जाने वाले सिलॅबस और अद्यापक का जिकर हो।  करारनामेपर लोकल एमपी, विधायक या नगरसेवक के हस्ताक्षर होतो और भी अच्छा है। ध्यान रहे इंस्टिट्यूट का चयन करते समय जहाँ स्वयं पढाने वाले स्थायी अध्यापक हो ऐसें जगह एडमिशन लेना चाहिये, बिचमे छोड भागणे वाले नही। पालकने ट्युशन फी जादासे जादा किस्तो में भरना चाहिये भले ही उस पर जादा ब्याज भरना क्यो न पडे।

अपने देशमें कोचिंग का व्यापार कई अब्ज रुपयों का है। लेकिन अफसोस की बात बजाय टॅक्स के उसपर आज तक कोई सरकारी कानून बना नही। यही वजह कि आज कोचिंग सेन्टर अपनी मनमानी चला कर छात्र के करियर के साथ खिलवाड कर रहे है। आज जरूरत है के सरकार ने इस समस्या को ध्यान में रख कर कुछ जरुरी कानून बनाना चाहिये और गलत बातों पर रोख लगानी चाहिये।

यह लेख खास समाजको जागृत करने के शुद्ध हेतु से  लिखा गया है।  समाज को जागृत करने के लिये आप इसे जादा से जादा लोगो न्को शेअर करे।


© प्रेम जैस्वाल, premshjaiswal@gmail.com
(नाम के साथ शेअर करनेमे मुझे कोई एतराज नही।)


Monday, 28 August 2023


        
           

                                 जीवनमूल्य

जीवनमूल्य वैश्विक असतात. मग भारतात असो की जगात चोरी न करणे, खोटे न बोलणे, वरिष्ठांचा आदर करणे, भ्रष्टाचार न करणे, कुणाला न फसवणे किंवा प्रामाणिक वागणे इत्यादी मूल्य सर्वथा सारखेच असतात. सर्व धर्म हि चांगली शिकवण देत असतात. पण काही लोक टोकाची भूमिका घेऊन 'माझा धर्म चांगला तुझा अत्यन्त वाईट' असा फरक करून वातावरण बिघडवण्याचा प्रयत्न करतात, त्यांचं थोडं चूकतचं.  सर्व धर्मात माणुसकीचे, जीवनमूल्याचे संस्कार असतातच कदाचित त्यामुळेच आज सर्व धर्म टिकून आहेत. 

दोन वर्षापूर्वीची गोष्ट. कार दुरुस्तीसाठी मी गाडी घेऊन एका गॅरेजमध्ये गेलो होतो. गॅरेजचे चाऊसभाई माझ्या नेहमीच्या परिचयाचे आणि मनमोकळे इसम. त्यांच्याकडे माझी गाडी तर चांगली दुरुस्त होतेच शिवाय त्यांच्या सोबत गप्पा मारण्यात मला खुप आनंद होतो असं ते म्हणतात, तसा त्यांनाही आनंद होतो असं ते म्हणतात.

 'अरे साब गाडी होती रहेगी आप मेरे साथ बैठो' मग कटिंग चहा पीत आमच्या गप्पा रंगतात. गप्पांच्या ओघात त्यांनी मला एक मजेदार किस्सा सांगितला, तो असा-

भल्या पहाटे एक धनाड्य व्यापारी आपल्या सामानासह रेल्वेस्टेशनवर उतरतो. एक ऑटोरिक्षावाला त्यांना त्यांच्या घरी नेऊन सोडतो. ऑटोवाला जेंव्हा परत फिरतो तेंव्हा त्याच्या लक्षात येते की त्या व्यापाऱ्यांची एक बॅग तर ऑटोरिक्षातच मागे पडून आहे. तो म्हातारा ऑटोवाला ती बॅग घेऊन परत त्या व्यापाऱ्याच्या घरी जातो. ती बॅग बघून त्या व्यापाऱ्याला खूपच मोठा धक्का बसतो. धक्क्यातून सावरत तो ऑटोवाल्याचे खूप खूप आभार मानतो. 'किती इमानदार आहेस तू'  म्हणून त्याच्या समोरच तो ती बॅग उघडून त्यात किती नोटा आहेत ते त्याला दाखवतो. शिवाय त्याच्या इमानदारीचा इनाम म्हणून त्याला तो नोटांचे एक बंडल देऊ करतो. ऑटोवाला त्या बंडलाला शिवतही नाही आणि म्हणतो की 'मी मेहनतीचं खातो आणि फुकटाची कुणाची काही दमडीही घेत नाही.' तो व्यापारी खूप आग्रह करतो पण तो ऑटोवाला रुपयांचे बंडल घेतच नाही. शेवटी तो व्यापारी त्या रिक्षा ड्रायव्हरला विनंती करतो 'पैसे घेऊ नको पण थोडा नाष्टा तरी करून जा '  तो आपल्या नोकरांना सांगतो की मी आंघोळीला जात आहे आणि तुम्ही या ऑटोवाल्याला छान पोटभर नाष्टा, चहा करूनच पाठवा.

आंघोळ करून काही वेळाने तो सेठ बैठकीत परततो. तो पर्यंत ऑटोवाला निघून गेलेला असतो. नेहमीप्रमाणे तयार होताना हाताला बांधण्यासाठी तो सेठ घडी शोधतो पण त्याला ती घडी सापडत नाही. आताच ठेवलेलं एव्हडं महाग घड्याळ कुठं गेलं म्हणून तो शोधाशोध सुरु होते. शेवटी न राहून तो घरातील सीसीटीव्ही कॅमेऱ्याचे फुटेज चेक करतो. फुटेज पाहून त्याला मोठा धक्काचं बसतो. त्या फुटेजमध्ये तोच इमानदार ऑटोवाला त्याचं सेठची किमती घडी उचलताना दिसतो. आता तर तो सेठ जाम बुचकळ्यात पडतो. त्याला प्रश्न पडतो- मी स्वतःहून त्याला बक्षीस म्हणून एक लाखच बंडल देत होतो तो घेण्यास त्याने चक्क नकार दिला, एव्हडी इमानदारी आणि माझ्या माघारी हे फक्त तीस हजाराचं जूनं घड्याळ त्याने का बरं चोरलं असेल? मटका, जुगार सारख्या अनेक दोन नंबरच्या धंद्यात गुंतलेल्या त्या सेठला गेलेल्या घड्यालाच काहीच दुःख होत नव्हतं पण त्या इमानदार ऑटोवाल्याच्या विकृत स्वभावाबद्दल जाणून घेण्याची त्याची इच्छा झाली. त्याने लगेच नोकराकरवी शोधा शोध करून त्याला पकडून आणलं. 'रोख रक्कमेच मोठं बक्षीस न घेता तू माझी घडी का उचललीस, चोरी का केलीस? पूर्ण बॅगच हाडपली असती तर उरलेलं आयुष्य तू ऐषोआरामात जगला असता! का हाथीप्रमाणे तुझेसुद्धा दाखवायचे आणि खाण्याचे दात वेगळे आहेत?'  अशा अनेक तीक्ष्ण प्रश्नाचा त्यावर भडिमार केला.

न राहून शेवटी त्या ऑटोवाल्याने घड्याळ  उचलण्यात कारण सांगितलं - 'सेठ, मैं ठहरा एक मामुली गरीब ऑटोवाला. मेरे भी कुछ वसूल है, मैने कभी किसिके मुफ्तके पैसे नही लिये। आपके यहां आने तक मैं पाक इमानदार हि था।  लेकीन जैसेही मैने आपके घरका खाना खाया मेरी नियत बदल गयी! शायद ये खाने मे ही कुछ दोष होंगा? असं सांगून तो सेठच्या पाया पडला आणि घडी परत करून माफी मागितली. 'मी तुला माफ केलं आता जा.'  परत जाण्यासाठी त्याने आपला ऑटो गर्रकन फिरवला. ऑटोच्या पाठीमागे स्पष्ट अक्षरात लिहिलं होतं,

       किसिके हराम के कमाये पैसे का खाओगे तो
       वो हरामीपणा तुम्हारे अंग में भी उतर जायेगा।

हे वाक्य वाचून तो सेठ थंड पडला. जे सांगायची त्या ड्रायव्हरची हिम्मत होत नव्हती ते ऑटोने सांगून टाकलं होतं. त्याच्या 'अर्थाला अर्थ नव्हता' हरामाच्या कमाईचं अन्न खाल्याने ऑटोवाल्याच्या मनातसुद्धा बेईमानी आली होती. असंच तो सुचवून गेला. त्यामुळेच किती पैसा कमावला पेक्षा कसा कमावला याला खूप महत्व आहे. 

मग या कथा किंवा घटनेपासून काय बोध घ्यायला हवा ? अन्न हे पूर्णब्रम्ह, पण त्यावर त्या त्या ठिकाणचे बरे वाईट संस्कार होत असतात. फक्त अन्न नाहीतर आपल्या सभोवतालच्या सर्वच लोकांचे, वातावरणाचे संस्कार आपल्यावर होत असतात.  यालाच तर संगतगुन म्हणतात. स्वच्छ मंदिर किंवा देवालयात गेलो तर मन प्रसन्न होऊन आपल्या मनात चांगले विचार येतात. काही ज्ञानी लोकांच्या सहवास लाभला तर आपण बरंच चांगलं शिकतो. या उलट काही वाईट संगत लागली की त्याचा परिणाम आपल्यावर होतोच. आपला स्वभाव, विचार करण्याच्या पद्धतीत त्यामुळे बदल घडतो. याच कारणामुळे समाजात वाईट, चांगल्या प्रवृत्तीच्या लोकांचे गट निर्माण होतात.

एखाद्या लग्न-समारंभात हे बघून आश्चर्य होईल की, सारख्या प्रवृतीची लोकं एका समूहात जमलेली असतात.  वाईट प्रवृत्तीची माणसं एक वेगळा ग्रुप करून एखाद्या वस्तूबद्दल चर्चा करत असतात. राजकारणी लोकांचा वेगळा ग्रुप,  तर थोडे शिक्षित लोकं एका वेगळ्या समूहात बसून आपल्या हिताच्या गप्पा मारत असतात तर चांगले विचारवंत असतील तर ते एखाद तत्वज्ञान, सामाजिक किंवा आर्थिक  समस्येवर आपली मत मांडताना दिसतात.  इंग्रजीत एक सुंदर म्हण आहे,

         'बर्डस ऑफ लाईक फेदर, फ्लॉक टुगेदर'

© प्रेम जैस्वाल premshjaiswal@gmail.com
(हा लेख नावासह शेअर करण्यास माझी हरकत नाही)









                    टीआरपीचं गौडबंगाल



काही दिवसांपूर्वी माध्यमामध्ये टीआरपीबद्दल बराच गोंधळ उडाला होता. दुरचित्र वाहिन्यांनी स्वतःची कमाई वाढावी म्हणून टिआरपीत घोळ केला. माध्यमात एका 'प्रसिद्ध' इंग्रजी वृत्तवाहिनीबद्दल खूप चर्चा झाली आणि नेहमीप्रमाणे जनता सर्व विसरून गेली. एखादं प्रकरण ताणून धरणारी वाहिनीच जेंव्हा जाळ्यात अडकते, मग आवाज कोण उठवणार? जाहिरात क्षेत्रासाठी हा प्रकार नवीन नव्हता, असो.

काय असते बरे हि टीआरपी? जाहिरात किंवा दूरचित्रवाणी क्षेत्रात युगात वावरणाऱ्या लोकांना याबद्दल विशेष सांगण्याची गरज नाही कारण त्यावरंच तर त्यांची पोळी भाजली जाते. त्यासाठी वाटेल ते उपद्व्याप ते करत असतात आणि भोळ्याभाबड्या जनतेची मात्र चक्क फसवणून होत असते. हा लेख लिहिण्या मागचा हेतू त्यांना थोडं जागृत करणे, हाच आहे.

उत्पादित वस्तू किंवा सेवेची माहिती लोकांपर्यंत पोहचवून विक्री वाढविण्यासाठी कंपन्यांकडे जाहिरात विभाग असतो. अर्थात जाहिरात करून जास्त विक्री म्हणजे जास्त नफा हे सरळ समीकरण असतं.  जाहिरातीसाठी त्यांच्याकडे वृत्तपत्र, होर्डिंग, बॅनर, मासिकं, मोबाईल, इंटरनेट, दूरचित्रवाणी इत्यादी शेकडो विविध पर्याय उपलब्ध असतात. पण दूरचित्रवाणीच्या वाढत्या प्रसारामुळे जाहिरातीसाठी हे सर्वात मोठं माध्यम आहे. त्यामुळे टिव्ही वाहिन्यांवर होणारा जाहिरात खर्च सर्वात जास्त असतो. टिव्ही वाहिन्यांची वार्षिक उलाढाल ३० हजार कोटींची असते. उद्योजक वार्षिक उलढालीच्या साधारण १५-२०% टक्के रक्कम जाहिरातीवर खर्च करत असतात.  स्पर्धेच्या धुमचक्रीत बऱ्याचदा हा खर्च ३०% पर्यँत होतो. जाहिरातीवर होणारा अफाट खर्च वस्तू-सेवेशी निगडित 'टार्गेट ऑडियन्स'( संभाव्य ग्राहक) पर्यन्त पोहचण्यासाठी झाला तरंच त्याचा उपयोग नाही तर तो व्येर्थ! उदा. मर्सिडीज बेन्झची जाहिरात 'आमची माती आमची माणसं' या कार्यक्रमात प्रक्षेपित करून फारसा फायदा होणार नाही ?

आपल्या वस्तू किंवा सेवेचे ग्राहक, त्यांच वय, उत्पन्न गट ठरल्यानंतर त्यांच्या पचनी पडेल अशी जाहिरात तयार करून जाहिरात कंपनी ती दूरचित्रवाणीवर प्रक्षेपित करण्याचं नियोजन करते. त्यासाठी लोकप्रिय मालिका,वृत्तवाहिनी, इव्हेंट किंवा रियालिटी शोची निवड केल्या जाते. अर्थात जाहिरातीचे दर त्या त्या प्रोग्रॅमच्या लोकप्रियतेवर अवलंबुन असतात.  वाहिन्यांची लोकप्रियता जाणून घेण्याचं काम शासनाच्या ट्राय आणि माहिती प्रसारण मंत्रालयाच्या अखत्यारीत असलेली 'बार्क' (ब्रॉडकास्ट ऑडियन्स रिसर्च कौन्सिल इंडिया) हि संस्था करत असते. त्यासाठी अख्या देशातील हजारो घरांमधून गुप्त माहिती डेटा संकलित करून त्याचं ऍनालीसीस केल्या जातं, त्या माहितीस टीआरपी म्हणजे 'टेलिव्हिजन रेटिंग पॉईंट' असे म्हणतात. थोडक्यात टीआरपी म्हणजे मालिका किंवा वृत्तवाहिनीच्या लोकप्रियतेचा लोकांकडून मिळालेले रिपोर्ट कार्ड!

ज्या प्रमाणे निवडणुकीनंतरचे 'एक्झिट पोल' घेतल्या जातात काहीशी त्याच धर्तीवर टीआरपी मोजली जाते. त्यासाठी देशातील टीव्ही प्रेक्षकांची विविध उत्पन्न गटात विभागणी करून वेगवेगळ्या घरातून गुपितपणे असा डाटा संकलन करण्याचं काम 'बार्क' हि संस्था करत असते. देशातील विभिन्न उत्पन्न गट, वयोगट, लिंग, सामाजिक, भौगोलिक स्थिती असलेल्या साधारण ४५००० घराची त्यासाठी निवड करून त्यांच्या दुरचित्रवाणीच्या सेट-टॉपबॉक्सशी एक उपकरण जोडल्या जातं, त्यास 'बॅरोमीटर किंवा पिपल्समीटर' असे म्हणतात. वाहिन्या आणि जनतेस या मीटरबद्दल माहिती नसते.  हा मीटर त्या घरातील किती सदस्य किती वेळ कोणते टीव्ही कार्यक्रम बघतात याचं इत्यंभूत माहितीचं संकलन करत असतो.  दर सात दिवसानंतर देशातील सर्व बॅरोमिटरची माहिती 'बार्क' कडे संकलित होत असते. त्या वरून या आठवड्यात कोणती वाहिनी 'नंबर वन' हे ठरवलं जातं, त्या वाहिनीचे जाहिरातीचे रेट वधारतात. टाळेबंदीमध्ये रामायण मालिकेने टीआरपीचे सर्व रेकॉर्ड तोडले होते.

मायबाप प्रेक्षकांना टिव्ही समोर खिळवून टीआरपी वाढविण्यासाठी कार्यक्रमाचे आयोजक ना ना युक्त्या करत असतात. टीआरपीसाठी काही वृत्तवाहिन्याचे निवेदक बेताल,व्हायात बडबड, ब्रेकिंग न्यूज दाखवून थिल्लर पत्रकारितेची सीमा गाठतात. आपण लोकशाहीचे 'चतुर्थ स्तंभ' आहोत याचं त्यांना भान नसतं. डिबेटच्या नावाखाली विविध धर्मातील 'पंडित'  'मौलवी' वृत्तवाहिणीच्या स्टुडिओत आमंत्रित करून त्यांना गरळ ओकण्यास मजबूर केल्या जातं. प्रसंगी आपापसात शिवीगाळ, भांडण जुंपून देण्यात वृत्तनिवेदक धन्यता मानतात. देशाचे धार्मिक, राजकीय ध्रुवीकरण होऊन त्या वाहिनीचा टीआरपी वाढत जातो. आपण देशाचं पावित्र्य, शांतता धोक्यात आणून धार्मिक तेढ वाढवून  वातावरण दूषित करत आहोत याची त्यांना पर्वा नसते. बऱ्याचदा बेजबाबदार राजकीय नेते बेताल बडबड करून त्या वाहिनीची टीआरपी वाढवून जातात. रियालिटी शोच्या नावावर जज-अँकरची फालतू ओरडा-ओरडं, अपमानाचे प्रकार, बिभत्स किळसवाणे प्रकाराचं थेट प्रक्षेपण करत देशाच्या संस्कृतीला काळ फासत असतात. मग संगीत रागाशी तसुभर संबंध नसलेली प्रसिद्ध नृत्यदिग्दर्शिका फराह खान चक्क देशाच्या 'इंडियन आयडॉल' ची जज बनते. तिची वायफळ बडबड शोचा टीआरपी वाढवून जाते.  काही मालिका गरज नसतांना विनाकारण ताणल्या जातात.  मालिकेत उत्कंठा वाढविण्याचे, भावनिक तडका देण्याचे प्रकार घडत असतात.  प्रसंगी वोटिंगची मदत घेतल्या जाते-  '............इन्हे मिले है सबसे ज्यादा वोट वही होंगे देशके ' इंडियन आयडॉल'. थोडक्यात जाहिराती मिळवून निव्वळ तिजोऱ्या भरण्याच्या नशेत बेभान टिव्ही वाहिन्या सामाजिक मूल्य, राष्ट्रहित, राष्ट्रप्रेम, संस्कृती आणि सामाजिक जबाबदाऱ्या पार विसरून जातात.

काही दिवसांपूर्वी एक मजेदार टीआरपी घोटाळा उघडकीस आला. खरं तर टीआरपी मोजणाऱ्या पिपल्समीटर असलेल्या घराची माहिती गुपित ठेवणे बंधनकारक. पण त्या घरांची माहिती उघड झाली. काही वाहिन्यांची पैसे देऊन आपली टीआरपी वाढवून घेतली. ज्या घरात कुणी शिक्षित नाही, इंग्रजी भाषेचा लवलेश नाही अशा घरात 'प्रसिद्ध अँकर' असलेली इंग्रजी वृत्तवाहिनी दहा-बारा तास बघितली जात होती! काही घरात कुणी उपस्थित नसतांनाही टिव्ही चालू! अर्थात रेटिंग वाढावी म्हणून वाहिनीने पिपल्समीटर असलेल्या घरोघरी थोडे पैसे देऊन आपल्या वाहिनीची रेटिंग वाढविण्याचा प्रताप केला होता. थोडया पैशामध्ये त्यांचा मोठा जाहिरात रेव्हेन्यू वाढत होता.  तर 'फेक टीआरपी' मिळून जाहिरात कंपन्याना कोट्यायावधी रुपयाला चुना लागला होता.  चांगल्या रिपोर्टकार्डसाठी कॉपी करण्यासारखाच हा प्रकार.  आणि असा प्रकार पहिल्यांदा घडला असं नाही.

माध्यमं मग ती वृत्तपत्र असो की इलेक्ट्रॉनिक्स (टिव्ही,इंटरनेट) त्यांच्यावर सुद्धा एक सामाजिक जबाबदारी असते. शासनाने आखून दिलेल्या कायदे आणि नियमांच्या चौकटीत त्यांनी आपले कर्तव्य बजावणे अपेक्षित आहे. भोळ्याभाबड्या जनतेचा माध्यमावर प्रचंड विश्वास असतो. पण फक्त टीआरपीसाठी वाटेल ते मार्गाचा अवलंब करून जनतेच्या विश्वासाला तडा देणे किती योग्य? आणि असे प्रकार लोकशाहीसाठी घातक नव्हे का?


© प्रेम जैस्वाल, औरंगाबाद 9822108775
(मजकुरात बदल न करता हा लेख नावासह सामायिक करण्यास हरकत नाही)







Tuesday, 22 August 2023


       

अस्खलित भाषा आणि शिष्टाचार

खरं तर आज लिखानासाठी माझ्याकडे विषयच नव्हता. कोणता विषय निवडावा सुचत नव्हतं. आज लिखाणात 'खाडा' पडतो की काय अशी भिती होती. पण सकाळीच एक छान पोस्ट आली. ती गावरान शब्दाविषयी होती. गावखेड्यातील गावठी 'खुरपणे, डवरने, इतवार, मोट.....इत्यादी शब्द आज लोप पावत आहेत, कुठेही ते उच्चारले जात नाही असा त्या लिखाणाचा सूर होता. ज्या लेखकांनी (नाव नव्हतं) लिहिला निश्चितच त्यांची नाळ गाव-खेड्याशी जुळलेली असणार.  त्याच पोस्टचं विरजण घेऊन मी आजचा लेख लिहीत आहे. अर्थात माझ्या लिखानाच बरंच श्रेय त्यांना जातं.

मानव उत्क्रांती आणि विकासाचा अभ्यास केल्यास लक्षात येईल की आदिवासी हे येथील मूळ निवासी आहेत.  ते जंगलात वस्ती करून राहत तेंव्हा सुद्धा त्यांची एक बोलीभाषा होती. जगण्याचे साहित्यच कमी होते त्यामुळे त्यांच्या शब्दाला मर्यादा होती.  कालांतराने मानवजात गाव खेड्यात वस्ती करून शेती करू लागली.  शेतीसाठी लागणारे पशुजीव, अवजार, साहित्य त्यामुळे नवनवीन शब्दाची उत्पत्ती झाली.  वखरने, जुंपणे, नागरने या शब्दाची निर्मिती शेतीमुळेच. ज्यांची नाळ गाव शेतीशी जुळलेली आहे त्यांना असे शब्द रोजचेच आहेत, नवीन नाहीतच. शहरात अशा साहित्याची गरज पडत नाही त्यामुळे ते उच्चारण्याची गरज नाही.

आता प्रश्न पडतो की गावखेड्यात बोलली जाणारी भाषा शुद्ध की अशुद्ध?  माझ्या मते भाषा ही भाषाच असते ती शुद्ध किंवा अशुद्ध नसते. 'कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी' प्रमाणे वीस-तीस मैलावर ती बदलत जाते.  इतर ठिकाणी ती अशुद्ध वाटत असली तरी त्या त्या ठिकाणी ती भाषा शुद्धच असते. महान संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, संत तुकाराम किंवा संत तुलसीदास, कालिदास या महान संताच साहित्य वाचलं तर शब्द आणि भाषेतील भिन्नता लक्षात येईल. विविध संस्कृतीने नटलेल्या भारत देशात साधारण सतराशे बोली भाषा आहेत.  ज्या समाजात आपण रमतो, जगतो त्या ठिकाणच्या भाषेशी, व्याकरणाशी जुळवून घेत असतो. शेती आणि त्यावर पोसणारा आदिवासी, कुणबी समाज यांच्यापासून आपण दूर गेल्यामुळे आज हे शब्द ऐकावयास मिळत नाही.

आधुनिकीकरणामुळे नांगरने, वखरने, पाण्याची मोट ची जागा आधुनिक सॉफ्टवेर बेस्ड ट्रॅकटरसारख्या उपकरनाने घेतली आहे त्यामुळे नांगराच्या फाळाची आणि बैलाच्या कासऱ्याची गरज उरली नाही. उत्तम शेतीपासून उत्तम चाकरमाण्याच्या जगात गेलेल्या लोकांच्या चर्चेत त्या शब्दाचा अंतरभाव नसतो.

खेड्यातील गावरान, अस्सल 'जनरीक' शब्द सहसा शहरी चर्चेत नसतात. याच दुसरं मोठं कारण म्हणजे दिखावा.  'लुकिंग गुड, लुकिंग बॅड'  च्या नादात काही लोकं अशा शब्दाचा प्रयोग करनं टाळतात. 'लोकं हसतील, खेडूत म्हणतील' अशी धाकधूक असते. आपण खूपच सॉफिस्टीकेटेड आहोत, सुसंस्कृत असण्याचा उसन अवसान आणतात. अस्सल शब्दाऐवजी ते संभाषणात दोन 'विंग्रजी' शब्द घुसाडून आपण मॉडर्न आहोत असा आव आणतात.

वापरात नसलेली लोखंडी वस्तू गंज चढून जशी नाहीशी होते त्याच प्रमाणे भाषा जर वापरात नसेल तर ती लोप पावते. भाषा टिकून राहण्यासाठी तिचा वापर आवश्यक आहे. कितीही उलथापालथं झाली तरी चिनी, जपानी किंवा रशियन लोकांनी स्वतःची बोलीभाषा सोडली नाहीत. किंवा आपल्याप्रमाणे इंग्रजीला जवळ केल नाही. त्यामुळे त्या त्या देशाची संस्कृती आणि भाषा टिकून आहे.  आपल्या देशापुरत बोलायचं झाल्यास गुजराथी, राजस्थानी समाज कितीही प्रगत झाला तरी ती लोकं आपली भाषा बोलणे सोडत नाहीत. त्याच मोठं कारण म्हणजे हा समाज प्रगत आहे त्यांचं आर्थिक स्तर उंच आहे!  त्या उलट जो समाज आज गरीब आहे, इतर समाजाच्या तुलनेत विकसित नाही ते स्वतःची बोलीभाषेत बोलणे टाळतात.  या वरून एकच निष्कर्ष निघतो - खूप प्रगती करून तुम्ही विकसित झालात तर तुमच्या सोबत तुमच्या भाषेचा दर्जा सुद्धा उंचावतो, त्याला जगात मान्यता मिळते. चीन, जर्मन, रशिया आणि जापनीज सारख्या देशांनी हेच केलं. ते एव्हडे विकसित आणि स्वावलंबी झाले की त्यांनी देशांची व भाषेची अस्मिता टिकवून ठेवली.

आता थोडं शिष्टाचार विषयी -

'हमाम में सब नंगे....' प्रमाणे शिष्टाचार हा एक दिखावाच असतो. सेन्ट्रल एसी असलेल्या हॉटेलच्या गार हवेत काट्या-सुऱ्यांची मेळ घालत सॉफिस्टीकेटेट डिनर घेणारे खरोखरच घरी असे जेवत असतील का?  अर्थात नाही. शिष्टाचाराचा तंतोतंत पालन करून घेतलेल्या जेवनाणे पोट भरून, मन तृप्त होईलच याची शास्वती कमीच. कारण जेवताना बरंच लक्ष शिष्टाचार पाळण्यात खर्ची होत असतं. भाषेप्रमाणे शिष्टाचारच्या पध्द्तीसुद्धा बदलत जातात. इंग्रजी शिष्टाचार वेगळे, जापनी वेगळे तर रशियन वेगळे! काही वेळेपुरतं एक सामायिक मंचावर जुळवून घेण्यासाठी ते पाळण्यास हरकत नाही. थोडक्यात शिष्टाचारचं पालन करतांना आपण अस्सल सोडून कुणाची तरी नकल करत असतो, चांगलं दिसण्यासाठी!

कार्पोरेट शिष्टाचार किंवा एटिकेट्स हा डूप्लिकेटपणा त्या त्या ठराविक वेळापूरते पुरे. आणि समजा जमतच नसेल तर त्यांनी तुमचं खूप मोठं नुकसान होईल असं काही नसतं.   निखळ आनंदी जीवन जगण्यासाठी आपलं बोलणं, वागणं, अस्सल असावयास हवं.  उगीच प्रा. लक्ष्मीकांत देशपांडे सरांच्या  'वऱ्हाड निघालाय लंडनला' प्रमाणे स्वतःच मोकळं चाकळ सोडून इंग्रजांची नक्कल करण्यात काहीच अर्थ नाही. कारण ठराविक वेळेपुरतं तुम्ही एटिकेट्स पाळू शकता किंवा तसा अभिनय करू शकता कालांतराने तुमचा अस्सलपणा उघडा पडतोच! रियालिटी शो 'बिग बॉस' मध्ये हेच घडतं. सुरुवातीच्या काही काळापर्यन्त बिग बॉसच्या घरातील व्यक्ती टिव्हीच्या प्रेक्षकांचं लक्ष आपल्यावर आहे, काय म्हणतील, नावं ठेवतील.. म्हणून कॉन्शस असतात आणि थोडी ऍकटिंग करतात. 'लुकिंग गुड, लुकिंग बॅड' हे नाटकं जास्त काळ टिकत नाही. कालांतराने त्यांच खरं रूप, मूळ स्वभाव किंवा इतरांशी वागणं बाहेर पडतंच.

खेड्यातील एका अस्सल शेतकरी कुटुंबात वाढून  तालुका, जिल्ह्याच्या ठिकाणी शिक्षण घेऊन मी नोकरी निमित्त सहा-सात वर्षे देशाची आर्थिक राजधानी असलेल्या मुंबईसारख्या कॉर्पोरेट कल्चरमध्ये काढली. बराच काळ देश-विदेशातील उच्च-शिक्षित उद्योजक, डॉक्टर मंडळींच्या संपर्कात होतो.  बऱ्याचदा व्यवसायानिमित्त अमेरिकन, इज्राईल, चिनी किंवा कोरियन अशी भिन्न कार्पोरेट कल्चर असलेल्या उच्चपदस्थ लोकांसोबत काम करण्याची संधी मिळाली. त्यामुळे खूपदा पंचतारांकित हॉटेलमध्ये थांबण्याची किंवा जेवण्याची संधी मिळायची.  सर्वांची भाषा, संस्कृती आणि इतर शिष्टाचार वेगळे होते. अर्थात सर्वांशी जुळवून घेण्यात थोडी पंचाईत व्हायची.  असं असलं तरी शेतात झाडाखाली खालेल्या ज्वारीच्या भाकरीची, मिरचीच्या ठेच्याची आणि गावरान भाषेची चव वेगळीच!

आधुनिकीकरणामूळे सुखवस्तूत प्रचंड वाढ झाली आहे. विज्ञान आणि तंत्रज्ञानामुळे जीवन सुसह्य झालं असलं तरी अस्सल जगण्यापासून आपण फार दूर जात आहोत.  हुबेहूब मानवासारखी  बुद्धिमता, भाषा बोलणारा कृत्रिम रोबो निर्मिती पर्यत आपली मजल गेलेली आहे. पण कोणत्या किमतीवर?  बऱ्याच अस्सल गोष्टीला आपण मुकत आहोत हे निश्चित. सिमेंटच्या जंगलात वातानुकूल खोलीत अस्सल शुद्ध हवा देणारे वृक्ष नकोसे झाले आहेत. त्यांच्या वाळलेल्या पानाचा कचरा होतो म्हणे! मग हार-फुलांसाठी आम्ही पैसे मोजू किंवा त्याला फोन पे करू! अस्सल काळजी घेणारे आई-बाप किंवा मुके प्राणी नको कारण ते आपल्या दिनचर्येत व्यतेय आणतात.   मोबाईलमुळे तर जग जवळ होऊन शेजारी दूर झालेत.  अस्सल भाषा दूर होऊन 'इमोजी लोल' सारख्या संक्षिप्त शब्दांना आपण जवळ केलंय. बोलणं कमी आणि 'टेक्स्ट ओन्ली'  मुळे बोलीभाषेचं महत्व कमी तर होणार नाही ना अशी भिती वाटते.  काही वर्षापूर्वी प्रसिद्ध उर्दू शायर निदा फाजलीच्या ओली आठवतात -

जिसे भी देखीये वो अपने आप में गुम है,
जूबां मिली है मगर हम जूबां नही मिलता।

खरा आनंद अस्सल जगण्यात, अस्सल भाषा बोलण्यात आणि अस्सल वागण्यात आहे. तुम्ही जसे आहात परिपूर्ण आहात.


©प्रेम जैस्वाल, औरंगाबाद
  ९८२२१०८७७५ (नावासह लेख सामायिक करण्यास हरकत नाही)

Monday, 21 August 2023

डिजिटल मार्केटिंग





डिजिटल मार्केटिंग
                                 
समर्थ रामदासांनी दासबोधात मूर्ख आणि शहाण्या माणसाची लक्षणं सांगताना 'आपली आपण करी स्तुती......तो येक मूर्ख ||' असं सांगितलं आहे. समर्थ सांगतात कि लोकांनी स्वतःची स्तुती करू नये कारण असे करणे म्हणजे स्वतःची एक प्रकारची जाहिरातच केल्यासारखं होईल. आणि ते मूर्खपणाचे लक्षण आहे. पण आज जर समर्थ रामदास पृथ्वीवर अवतरले तर त्यांना खूपच वेगळं चित्र बघायला मिळेल. इतरांपेक्षा आपणच कसे चांगले हे पटवून देण्याऱ्या लाखो जाहिराती त्यांना ठिकठिकाणी बघायला मिळतील. या जाहिराती म्हणजे मार्केटिंगचाच एक भाग आहे. 

स्पर्धेच्या युगात व्यवसायात प्रगती करण्यासाठी मार्केटिंगशिवाय पर्याय नाही. आपण विकत असलेली वस्तू किंवा सेवा अतिउत्तम असली तरी तेव्हढ्याने भागत नाही. त्या वस्तूची सविस्तर माहिती सतत लोकापर्यंत पोहचवून विक्री वाढवण्याचं महत्वाचं काम मार्केटिंग करत असते. विक्री वाढवायची असेल तर मार्केटिंग आवश्यकच. मार्केटिंग विक्रीसाठी पायघड्या (पायदान)टाकत असते. त्या पायघड्यावरच विक्री पुढं पुढं जात असते. मार्केटिंगचे इतर अनेक फायदे आहेत. व्यवसायाचं उद्योगविश्वात नाव वाढवण्यासाठी, मार्केटमध्ये काय स्थिती आहे हे माहित करून घेण्यासाठी, ग्राहकांमध्ये वस्तू-सेवाविषयी विश्वास निर्माण करण्यासाठी, व्यवसाय वृद्धीसाठी, स्पर्धकाची माहिती मिळविण्यासाठी आणि ग्राहकाना समजून घेण्यासाठी मार्केटिंग आवश्यक आहे.

बदलत्या युगात मार्केटिंगच्या तंत्र आणि मंत्रात आमूलाग्र बदल घडले आहे. काही दशकांपूर्वी मार्केटिंग 'प्रोडक्ट ओरियन्टेड' होती. म्हणजे आहे त्या तयार वस्तू बाजारामध्ये विकल्या जायच्या. ग्राहकाच्या आवडी-निवडी महत्वाच्या नव्हत्या. कालांतराने त्यामध्ये बदल होऊन आज 'कस्टमर ओरिएंटेड' मार्केटिंग म्हणजे ग्राहकाच्या आवश्यकतेप्रमाणेच माल तयार करून तो बाजारामध्ये विक्री होतं आहे. ग्राहकराजा आता उद्योगाच्या केंद्रस्थानी आहे. कोणत्याही व्यवसायामध्ये मार्केटिंग ह्रदयाप्रमाणे सर्व विभागांना रक्तामार्फत प्राणवायूचा पुरवठा करून त्यांना सतत कार्यान्वित ठेवण्याच महत्वाचं काम करत असते. अमेरिकन लेखक फिलिप कोटलर ज्यांनी मार्केटिंगवर अनेक पुस्तक लिहिली त्यांना 'फादर ऑफ मार्केटिंग' असे म्हणतात. पंतप्रधान मोदीजींना नुकताच 'फिलीप कोटलर' अवॉर्ड देऊन त्यांचा गौरव करण्यात आला.

डिजिटल क्रांतीमुळे मार्केटिंगमध्ये बदल होणे साहजिक होते. इंटरनेटमुळे जगाला खेड्याच रूप आलं. वाढत्या स्मार्टफोन व समाजमाध्यमामुळे आपसातील संवादाला अफाट गती प्राप्त झाली. मोबाईल व इंटरनेटचे वाढते प्रस्थ बघून सर्वच वस्तू इंटरनेटवर उपलब्ध होत आहेत. आज जन्मापासून अंतिम संस्कारासाठी सर्व जीवणोपयोगी वस्तू इंटरनेटवर ऑन-लाईन उपलब्ध आहे. भारतात स्मार्टफोन धारकाची संख्या १३० कोटी आहे. प्रत्येक ग्राहक सतत स्क्रीनशी जुळल्यामुळे विक्रेत्याला इंटरनेट व मोबाईलवर जाहिरात करणे क्रमप्राप्त झाले आहे. कंप्युटर, इंटरनेट व मोबाईलसारख्या डिजिटल उपकरनाद्वारे केल्या जाणाऱ्या जाहिरातीलाच ' डिजिटल मार्केटिंग' असे म्हणतात.

आज सगळीकडे डिजिटल मार्केटिंगची चर्चा होत असली तरी याची सुरुवात कित्येक वर्षांपूर्वी झाली आहे.
डिजिटल मार्केटिंगची सुरुवात कुणी केली या बद्दल भिन्न मतं आहेत. गुग्लियीमो मार्कोनीने रेडिओचा शोध लावला मग त्यावर येणाऱ्या जाहिराती ह्या डिजिटल मार्केटिंगची सुरुवात असा माननारा एक वर्ग आहे. तर १९७१ मध्ये स्वतःलाच पहिला ई-मेल पाठवणारा रे टोमलिंसनलासुद्धा डिजिटल मार्केटिंगचा जनक माननारा एक वर्ग आहे. त्यामुळे डिजिटल मार्केटिंग हि संज्ञा जरी खूप नंतर आली पण त्याची सुरुवात खूप पूर्वी झाली असं समजायला हरकत नाही. अस असलं तरी खरी डिजिटल मार्केटिंगची सुरुवात १९९० मध्ये इंटरनेटवर पहिला सर्च इंजिन आलं तेंव्हा पासून झाली. त्यानंतर काही वर्षांनी वेबची सुरुवात झाली. १९९३ मध्ये पहिली जाहिरात इंटरनेटवर झळकली. वेबसाईटवर जाहिरात करणारी 'हॉटवायर्ड' पहिली कंपनी ठरली. १९९४ मध्ये याहू त्यानंतर हॉटबॉट, लुकस्मार्ट आणि अलेक्सा अवतरल्या. या विविध टूलमुळे आपली वेबसाईट सर्वात वर दिसावी म्हणून 'सर्च इंजिन ऑप्टिमायझेशन' हा प्रकार सुरू झाला. जगविख्यात गुगलने १९९४ मध्ये या क्षेत्रात प्रवेश केला आणि डिजिटल मार्केटिंगला उसंत मिळाली. वर्ष २००० नंतर गुगलच्या एडवर्ड तसेच वर्डप्रेसचा इंटरनेटवर प्रवेश झाला. अमेरिकेतील विविध उद्योगाची सविस्तर लिखित माहिती तयार करून ती वेबसाईटवर टाकण्याचे काम वर्डप्रेस करत असे.

डिजिटल मार्केटिंग का?

इतर माध्यमाच्या तुलनेने डिजिटल मार्केटिंग करणे खूप स्वस्त आहे. त्यासाठी खूप पैसे खर्च करावा लागतो असे नाही. मोठया उद्योगापासून अगदी गल्लीतील लहान दुकानदार डिजिटल मार्केटिंग करून आपला व्यवसाय वाढवू शकतो. आपली सुंदर वेबसाईट तयार करून ती माहिती ग्राहकापर्यंत सहज पोहचवू शकतो. आणि सर्वात महत्वाचा फायदा म्हणचे ग्राहकांचा प्रतिसाद व प्रतिक्रिया काय याचा अंदाज बांधता येतो. ठराविक क्षेत्रातील, ठराविक वयोगटातील, विशिष्ट क्षेत्रातील ग्राहक, त्यांच्या सवयी, त्यांच्या आवडीच्या वेबसाईट्स आणि त्यांच्या सोयीच्या वेळाच पक्का अंदाज बांधून कमी खर्चात डिजिटल मार्केटिंग आपण करू शकतो. असं करणं म्हणजे मशीनगन न वापरता रायफलने निशाणा साधल्या सारखा प्रकार आहे. डिजिटल मार्केटिंगचे ५० पेक्षा जास्त टूल आज उपलब्ध आहेत पैकी काही महत्वाचे टूल्स खालील प्रकारे -

१. फेसबुक : डिजिटल मार्केटिंगमध्ये फेसबुक सर्वांच्या आवडीचं टूल आहे. फेसबुक पेज तयार करून, आपल्या वस्तू-सेवेचा नेमका ग्राहक, ठिकाण, खर्चाचा बजेट याच गणित करून फेसबुकवर कमी किमतीत जास्त जाहिरात होऊ शकते.
२. गुगल अडवर्ड : हे टूल पूर्णतः कि-वर्डवर अवलंबुन आहे. तुमच्या व्यवसाय किंवा ब्रँडच नाव स्पर्धकांच्या आधी समोर यावं यासाठी यावर बोली लावली जाते. त्यानुसार गुगलला पैसे मिळतात.
३.गुगल अनालीटिक्स: गुगलचं हि फ्री सर्विस आहे. याद्वारे गुगलला कोणत्या पेजला कोणते ग्राहक, किती वेळ व्हिजिट, तिथे किती वेळ थांबतात हे माहित पडतं. त्यामुळे आपला संभाव्य ग्राहक कोण याची माहिती मिळते.
४ इंटरनेट मार्केटिंग : हा सर्वांच्या परिचयाचा ऑन-लाईन मार्केटिंग प्रकार आहे. विविध वस्तूच्या जाहिराती इंटरनेटवर दर्शवून त्या विकणे.
५.व्हिडीओ मार्केटिंग : विविध वस्तू किंवा सेवा उपभोगत असलेल्या ग्राहकांचा व्हिडीओ, टेस्टीमोनी युट्युबवर दाखऊन त्याची जाहिरात करणे.
६ कस्टमर रिलेशनशिप मॅनेजमेन्ट : आपल्या ग्राहकांचा डाटा तयार करून सतत त्यांच्याशी भावनिक संवाद साधणे, डाटा नियमित अपडेट करणे, नवीन वस्तू त्यांना ऑफर करणे इ.
७.डाटाबेस काँटॅक्टस :ग्राहकाला टेली-कॉलिंग करणे तसेच एसएमएस पाठवणे.
८.पीपीसी: म्हणजे पे पर क्लिक. आपल्या वेबसाईटवर जेव्हडे क्लिक होतील त्यानुसार आपल्याला पैसे लागतील, असा हा प्रकार.
९. डाटा मायनिंग : आपल्याकडे असलेल्या डाटा योग्य प्रकारे तपासून उत्कृष्ट मार्केटिंग आखणे. कोणत्या ग्राहकाला विक्री होत आहे तो डाटा तयार करणे.
१०सोशलमेडिया : फेसबुक, ट्विटर, गूगल+,पीइंट्रेस्ट, इंस्टाग्राम, लिंकडिन आणि युट्युबच्या जाहिराती या सोशलमेडिया जाहिराती असतात.
१०. लिंक बिल्डिंग : आपल्या ग्राहकाला ओळखून त्याच्या संबंधित लिंक शेअर करून त्यामध्ये आपल्या ब्रॅण्डची जाहिरात करणे.
११. अफिलीयेटेड मार्केटिंग : आपला ब्लॉग तयार करून त्यामध्ये 'कि-वर्ड' चा उपयोग करून आपण पैसे कमवू शकता.

आजघडीला एव्हडे टूल उपलब्ध असले तरी ग्राहकाच्या बदलत्या आवडीनुसार त्यामध्ये सतत बदल होत आहेत.
मार्केटिंग आणि युद्धात जास्त फरक नाही. ग्राहकाचा चार इंचाच मेंदू जिंकण्यासाठी सर्व कंपन्या युद्धाप्रमाणे मार्केटिंग करत असतात. युद्धात ज्याप्रमाणे भूदल, जलदल व वायुदल आणि युद्ध जिंकण्यासाठी शेकडो शस्त्र असतात, त्याचप्रमाणे मार्केटिंगमध्ये लोकांना आपल्याकडे आकर्षित करण्यासाठी कंपन्या वेगवेगळ्या माध्यमांचा उपयोग करत असतात. जसेकी वृत्तमानपत्र, टेलेकॉलिंग, टीव्ही, होर्डिंग, पांप्लेट, बूथ कॅम्पेन व डिजिटल जाहिरातीचा उपयोग होतो. शेवटी कोणत्या ग्राहकांसाठी कोणता पर्याय चांगला हे विक्रेत्याने ठरवायचे असते.

आज देशातील उद्योग व्यवसायात मराठी टक्का पाहिजे तेव्हढा नाही. देशाची आर्थिक राजधानी मुंबईमध्ये मराठी उद्योजकांची संख्या खूप कमी आहे. कदाचित मराठी माणसाला जाहिरात हा प्रकार आवडत नसावा. हा संस्काराचा भाग असू शकतो. माझ्या मते, एखाद्या वस्तूच्या विक्रीमुळे खरोखरच ग्राहकांचा फायदा होऊन समाज आणि देशाचं हित साधत असेल तर त्या वस्तूची जाहिरात करण्यात काहीच गैर नाही. संभाव्य ग्राहकच स्मार्टफोनवर उपलब्ध असताना सोपा मार्ग टाळून पारंपरिक खर्चिक मार्गाचा अवलंब करणे अत्यन्त चुकीचे होईल. स्वतः जाहिरात करता येत असेल तर अति उत्तमच. आज सर्व मुख्य शहरात डिजिटल मार्केटींची सेवा देणारे सल्लागार उपलब्ध आहेत त्यामुळे त्यांची मदत घेणे कधीही फायद्याचेच. आज 'महाराष्ट्र उद्योजक विकास केंद्र' पुणे सारख्या शासकीय संस्था कमी शुल्कात 'डिजिटल मार्केटिंग' चे प्रशिक्षण देण्यासाठी पुढे सरसावल्या आहेत. व्यवसाय कोणताही असो, आज गरज आहे सर्वांनी इतर मार्केटिंग माध्यमासह डिजिटल मार्केटिंगच कौशल्य आत्मसात करण्याची, बदल स्वीकारण्याची व स्वतःला अपडेट करण्याची. सर्वात महत्वाच म्हणजे उद्योग-व्यवसायात करोडोची उलढाल करून देशाच्या प्रगतीस आपलाही हातभार लावण्याची.

©प्रेम जैस्वाल पेडगावकर
ह. मु. औरंगाबाद 9822108775







Tuesday, 15 August 2023

शॉप : अप टू 50% ऑफ!



शॉप, अप टु 50% ऑफ!

'नथिंग कम्स फ्री. नथिंग. नॉट इव्हन गुड. इस्पेशीअली नॉट गुड.'

हा एक सुंदर इंग्रजी सुविचार आहे. त्याचा अर्थ असा की 'फ्री काहीच मिळत नसतं. वस्तू तर नाहीच, आणि अगदी चांगली तर नाहीच' म्हणजे जगात काहीही मोफत मिळत नसतं. मिळालं तरी ते चांगलं नसतं. चांगल्या वस्तूसाठी चांगली किंमत मोजावीच लागते. मग असे असतानाही 50% ऑफच्या मौसममध्ये का बरे एव्हडी गर्दी ? हा यक्ष प्रश्न आहे. आणि याचंच उत्तर आपल्याला या लेखात मिळणार आहे.

सिझन सेल 50% ऑफ म्हणजेच चक्क अर्ध्या किमतीत खरेदी. ग्राहकांसाठी ही ऑफर म्हणजे एक पर्वणीच. हा एक खरेदीचा परमोच्च आनंद मिळवण्याचा काळ. मॉल संस्कृतीमध्ये हे दिवस एका उत्सवापेक्षा कमी नसतात. या ऑफरचीच तर खरेदीदार मोठया आतुरतेने वाट पाहत असतात. विंडो शॉपिंग करून आधीच त्याने ब्रँडविषयी सर्व माहिती संग्रहित केलेली असते. ब्रॅण्ड सिलेक्शन फिक्स झालंच असत. आता उरतं फक्त 50% ऑफचे डिस्प्ले बघून दनादन शॉपिंग करून अर्धे पैसे वाचवणं.

मॉल संस्कृती रुजू होण्याआधी लोक शहरातील दुकान किंवा काही मोठया शोरूममध्येच खरेदी करतं. काही मुंबईसारख्या मेट्रो शहरातील पंचतारांकीत हॉटेलमध्ये शॉपिंग मॉल होते पण तिथे हॉटेलमध्ये उतरणारा उच्च वर्गच शॉपिंग करत असे. मध्यमवर्गीय किंवा त्याखालील समाजाला त्याची माहिती नव्हती. शहरातील दुकाने आकाराने जरी मोठे असले तरी ब्रँडसाठी हवा असा 'प्रोफेशन्यालिझम' म्हणजे व्यवहारिकता त्यांच्याकडे नव्हती. त्यामुळे डिस्काउंट हा प्रकार खूपच कमी होता, किंबहुना ते देत नसतं. त्यामुळे ग्राहकाने काही सूट मागितली तर ' कुछ गुंजाईश नही, वाजवी भाव रखा है, भैया आप हमारे हरदमके कस्टम्बर आपको ज्यादा कैसे लगायेंगे किंवा आपसे ज्यादा नही लेंगे साहब' असं म्हणून आणि मग एकूण रकमेवरची चिल्लर माफ करून आपली बोळवण व्हायची. आनंद एव्हढाच कि चिल्लर माफ केली.

आजच्या वीस वर्षाआधी तयार कपड्याच्या बाजारामध्ये मोजकेच ब्रॅण्ड होते आणि अनब्रँडेडचा बाजार मोठा होता. टेलरकडून कपडे शिवून घेतले जायचे. काही छोटे उत्पादक कपडे तयार करून काहीतरी नाव देऊन विक्री करायचे. जे कपडे वर्षो न वर्ष विकले गेले नाही, डिफेक्टिव्ह असतील असे कपडे ते एका मोठ्या व्यापाऱ्यास ठोकने विकत असत. मग तो व्यापारी असे दुय्यम दर्जाचे कपडे शहरात एखादा हॉल भाड्याने घेऊन ३-४ दिवसाचा 50% ऑफचा सेल लावायचे. अशा हॉलमध्ये कपडे 'ट्रायल' करून बघण्याची मुभा नसायची. त्यामुळे एकदा कपडे घेतल्यानंतर काही त्रुटी निघाली तर 'आलिया भोगासी....' कारण एकदा घेतलेला माल परत करायची सोय नसायची.

मागील काही वर्षात भारतातील सर्व मोठया शहरात मॉल सुरु झाले. मॉलमधील ब्रॅण्ड हे आंतरराष्ट्रीय दर्जाचे असल्यामुळे त्यांना समाजातील विविध स्तर, त्याची आवड निवड, खरेदीचा पॅटर्न आणि मुख्य म्हणजे खरेदीची ताकतेचा अंदाज असतो. हे माहित करण्यासाठी त्यांच्याकडे तसा सांख्यिकी डाटाच असतो. तेंव्हा कोणत्या फॅशनची चलती आहे, कोणता पॅटर्न, कोणते साईज, कलरची चलती आहे हे ठरवूनच माल तयार करण्यात येतो. यदाकदाचीत हे गणित बिघडलं तर मोठा स्टॉक गोडाऊनमध्येच पडुन राहण्याची भिती असते.

ब्रॅण्ड मोठा असेल तर त्याचा देशभरातील पसारा खूप मोठा असतो. उत्पादन-निर्मितीचे कारखाने, गोडाऊन, वितरण व्यवस्थापन, सर्व मोठया शहरात कितीतरी फ्रनंझाईजी आऊटलेट, मॉल आउटलेट, प्रत्येक मॉलमध्ये मॅनेजरसह सेल्समन. याशिवाय वितरण टीम सह सर्वे टीम, जाहिरात आणि मार्केटिंग टीम. प्रत्येक ब्रॅण्डच्या प्रोडक्टचा एक प्रोडक्ट मॅनेजर असतो जो त्या प्रोडक्टचा सर्वेसर्वा असतो. उदा. रँग्लर जीन्स. मग रँग्लर जीन्सचा सध्या ट्रेंड कसा, त्याला निवडणारा वर्ग कोणता, त्याची किंमत किती असावी, स्पर्धकांच्या तुलनेत आपली जीन्स कशी आणि तो कोणत्या शहरातील आउटलेटमध्ये चालेल, हे सर्व तो ठरवत असतो. आपला ब्रँड ज्या ग्राहकांसाठी बनवला आहे त्यापर्यत पोहचण्यासाठी ती कंपनी खूप पब्लिसिटी आणि जाहिरात करत असते. मग त्याचे व्यवस्थित नियोजन करून वृत्तमानपत्र, टीव्ही, रेडिओ, मॅगझीन, न्यूजआर्टिकल्ससह चित्रपट आणि सोशल मीडिया या मध्ये जाहिरात केली जाते. ब्रँड म्हंटल तर ग्राहक हा राजाचं, मग त्यासी संवाद साधण्यासाठी त्यांच्याकडे वेगळा विभाग असतो. हा सर्व खर्च खूप मोठा असतो. एक ब्रॅण्ड, त्याच्या दिमतीला असलेली संबंधीत टीम आणि जाहिरात यामुळे ब्रँड महाग झालेला असतो. त्यामुळे ऑफर सोडता इतर काळात आहे त्या किमतीत त्यांना वस्तू विकणे भाग असते. मार्केटिंगचा भाग किंवा मागणी-पुरवठा याचे गणित चुकल्यामुळे अधून मधून, कधी उत्सवात छुटपुटं ऑफर येत असतात. पण त्या ग्राहकाला इतक्या आकर्षित करत नाहीत कि ज्यामुळे सेल वाढेल.

मॉलमध्ये फिरणाऱ्या प्रत्येक ग्राहकाच्या डोक्यात एक प्रश्न कायम घोळत असतो की एव्हड मोठं चकाचक एसी शोरूम, मॅनेजरसह आठ-दहा सेल्समन,आणि आत एकही ग्राहक नाही, मग या सेल्समनचा पगारखर्च, भाडे वजाकर्ता यांना नफा कसा होत असेन? थोडक्यात, त्यांना कसं परवडत असेल ? पण मी येथे सांगू इच्छितो कि हे सर्व खर्चाचे गणित गृहीत धरूनच त्यांनी ब्रॅण्डची किंमत ठरवलेली असते. त्यामुळे त्यांना काही फरक पडत नाही. 

ब्रँड हा ५०% ची ऑफर हे गृहीत धरूनच एमआरपी ठरवत असतो. तसेच संपूर्ण पैसे जाहिरातीत खर्च न करता थोडी ऑफर देऊन ब्रँड लोकापर्यंत पोहचावण्याचा कंपन्यांचा मानस असतो. असाच ब्रँड मोठा होतो आणि ऑफरमध्ये सेल होऊन कंपनीची गुंतवणूक मोकळी होते. उलाढाल वाढून नफा वाढतो. लोकांना सवय पडून ते ब्रॅण्डचे दिवाने होतात.

याशिवाय 50% ऑफचे इतरही अनेक फायदे कंपनीला होत असतात. बरेचसे न विकलेले आऊट ऑफ फॅशन, ऑड साईज तसेच ट्रायल व्हरजण कपडे ऑफरमध्ये खपवले जातात. काही लॉट एखाद्या आउटलेटमध्ये चालत नाही मग तो इतर ठिकाणी सेलमध्ये विकून कंपनी भांडवल मोकळ करून घेतात. शेवटी 50% ऑफर देऊनही जो माल विकल्या जात नाही तो 'ब्रँड फॅक्टरी' मध्ये समाविष्ट होतो. मग हि ब्रॅण्ड फॅक्टरी विविध ब्रँडचा माल 50-60% ऑफवर तो वर्षभर विकते. थोडक्यात काहीच शिल्लक राहत नाही.
मॉलमध्ये जास्तीत जास्त 50% ऑफचे डिस्प्ले हे 'अपटू 50% ऑफ' असे असतात. याचा अर्थ जास्तीत जास्त डिस्काउंट 50% . मग अशा डिस्काउंटचा बोर्डवर 50% खूप मोठ्या अक्षरात आणि ' अपटू' हे शब्द खूप पातळ कुपोषित फॉन्टमध्ये उभे लिहिलेले असते किंवा एका छोट्या साईझमध्ये आपले लक्ष न जावे असे छोटया अक्षरात लिहिलेले असते. हेतू असा कि 50% ऑफ बघून ग्राहक आत यावा, त्याने ऑफरचे काही कपडे बघावे, आवडले तर ठीक नाहीतर 'न्यू अरायवल' दाखवण्यासाठी आम्ही तयार आहोतच. काही शोरूम फ्लॅट 50% असा मोठा फलक दर्शनी भागावर लावतात. आत नावाला २०-२५ गारमेंट फ्लॅट 50% वाले असतात. त्यापैकी एकही आपल्या साईजचा नसतो म्हणून ग्राहकांचा हिरमोड होतो. एमआरटीपीसी कायद्या अंतर्गत हा गुन्हा ठरू नये म्हणून त्यांना काही वस्तू ठेवणे आवश्यक असते. बाकी काही गारमेंटवर साधारण २०-३०% सूट असते. असाच काहीसा प्रकार मद्य विक्रते करत असतात. एका विदेशी मद्य विक्रेत्याने जाहिरात बंदी असतानाही दुकानावर 'स्मिरन ऑफ' असा मोठा बोर्ड लावून बारीक अक्षरात मिनरल वॉटर लिहिलं. 'स्मिरण ऑफ हा मद्याचा ब्रँड, त्याची जाहिरात करता येत नाही. एका अधिकाऱ्यानं चौकशी केल्यानंतर त्याने - हो आम्ही स्मिरन ऑफ मिनरल वॉटर विकतो म्हणनू १ बाटली 'स्मिरण ऑफ मिनरल वॉटर'ची आणून दाखवली! बाकी स्मिरण ऑफ वोडकाची विक्री जोरात होत होती.
ब्रँड कोण घेत? तयार कपडे असो का इतर वस्तू, मुळात ब्रॅण्डेड घेणारे दोन वर्ग असतात. तयार कपड्याचाच विचार केल्यास एक वर्ग ज्यांना ब्रॅण्डेड कपड्याची गुणवत्ता आवडते आणि दुसरा वर्ग म्हणजे फक्त 'टॅग'साठी ब्रँडेड कपडे विकत घेणारा. वय १६ ते २५ वयोगटातील मुलं दुसऱ्या वर्गात मोडतात. त्यांना टॅग दाखवून मित्रात मिरवायचं असतं. मटेरियल आणि डिझाईनशी काही घेणंदेणं नसतं. त्यामुळे ब्रॅण्डचा फायदा होतो. हे समीकरण खाद्य ब्रॅण्डलाही लागू होतं. 'मी बियिंग ह्यूमनचा टि-शर्ट घालून मित्रांसोबत ओलाने ओरबीट मॉलला गेलो, केएफसी मध्ये खालं, सीसीडी मध्ये कॉफी पिली आणि मित्राच्या फोक्सवॅगनने परत आलो', अशा 'ब्रँडेड चॅटिंग' करणे त्यांना 'कुल' वाटते.
तसा 50% ऑफचा फायदा अनेक लोक आपआपल्या परीने घेत असतात. मिक्स स्टॉक असल्यामुळे ही खरेदीचं तडजोडीची ठरते. पाहिजे ते डिझाईन, पॅटर्न, कलर आणि माप याचा मेळ लागणे कठीण होत. त्यामुळे अर्ध्या किमतीच्या खरेदी-दबाबासमोर कधी कधी निवड शरणागती पत्करते. मग शाळा-कॉलेजची 'यंग जनरेशन' एकदम टि-शर्टचा स्टॉक भरतात. महिला ग्राहकही सेल्समनला जास्त त्रास न देता थोडी तडजोड करून शॉपिंग करतात. काही भलतेच 'आशावादी' एक साईज कमीचे टि शर्ट-जीन्स आगाऊ घेऊन ठेवतात. काही दिवसांनी आपला वेटलॉस होऊन आपण स्लिम-ट्रिम दिसू अशी त्यांना आशा असते. पण असं काही घडत नाही, वजनकाटा हालत नाही, कपडे पडून राहतात. काहींना पर्यटन किंवा परदेशी गमन करायचं असतं. पाश्चिमात्य कपडे परिधान करून सेल्फीची हौस तिकडे पुरी होणार असते, म्हणून काही तशी खरेदी होते.
मॉलमधील 50% ऑफचा समाजातील गरीब बांधवानाही चांगला फायदा होत असतो. आवाक्यात नसणारे ब्रँड आता ते खरेदी करू शकतात. तेंव्हा आता तेही फॅशनच्या प्रवाहात येतात. 50% ऑफवर खरेदी करनं मात्र श्रीमंत उच्चवर्गासाठी अवघड काम असतं. 'लुकिंग गुड, लुकिंग बॅड' सांभाळण्यामध्ये त्यांचा बराच वेळ जात असतो. मोकळं चाकळ अस्सल जीवन जगणं त्यांना जमत नसतं. सायंकाळच्या 'पिक आवर्स' मध्ये शॉपिंगला गेलं तर खरेदी करताना आपलाच स्टाफ, पेशन्ट किंवा क्लायंट भेटून फोत्री होण्याची भिती असते. मग ते सकाळ किंवा भर दुपारची निवांत वेळ साधतात. अशाच एका सकाळी मी 50% ऑफमध्ये खरेदीस गेलो, तसं मी नेहमीच जात असतो. बिलिंग काउन्टरच्या रांगेमध्ये माझ्यासमोर एक ओळखीचे मोठे डॉक्टर होते. नमस्कार झाला. बिलिंग करते वेळेस त्यांच्या लक्षात आले की त्यांनी निवडलेले दोन कपडे ऑफरवाले नसून ते 'न्यू अरायवल' लॉट मधले आहेत. आता बिलिंग काऊन्टरवर येऊन कपडे परत करणं त्यांना शोभनारं नव्हतं. तेंव्हा नाइलाजाने पूर्ण बिल अदा करून डॉक्टर महाशयांना ते घ्यावेच लागले. माझं मलाच अवघडल्यासारखं झालं.

एका मोठ्या शहरात रिलायन्स मॉल सुरु झाला होता. जागा आणि पसारा खूप मोठा होता. सुरुवात जोरात व्हावी म्हणून त्यानी मोठमोठे होर्डिंग लावून एक खास ऑफर ठेवून वातावरण मुक्त ठेवलं होतं. मॉलमध्ये काही तुरळीक ठिकाणीच सेल्समन ठेवले होते. गर्दी वाढून मोठा सेल होईल आणि बिलिंग सोपी व्हावी या योजणेने त्यांनी कपड्याला सेन्सरही लावले नाही. पण घडले भलतेच. काही दिवसानंतर त्या स्टोअर मॅनेजरच्या लक्षात आलं कि स्टॉक आणि कॅश कलेक्शन हे टॅलीच होत नाही. स्टॉक तर कमी होतोय पण कॅश काही वाढतं नाही. पाणी कुठं मुरतय हे पाहण्यासाठी त्यानें मॉलमध्ये खोल चौकशी केली. सर्व व्हिडीओ-फुटेज बघून घेतले. लक्षात आलं की काही विंडो शॉपर हे 'विशिष्ट' हेतूने येत होते. जुन्या शर्टच्या आत स्लिमशर्ट आणि बर्मुड्यावर दुसरा बरमुडा चढवून चक्क '100%' ऑफ घेऊन हे लोक बिनदीकत बाहेर जात होते. टि-शर्ट तर खुपचं कमी झाले होते. आता काय उपाय, ट्रायलरूममध्ये कैमरा तर लावता येत नाही. मग शेवटचा पर्याय म्हणून एक खास सेल्समन पुरुष-ट्रायलरूमच्या बाहेर उभा करून हा प्रकार थांबला. तो पर्यंत पुलाखालून बरंच पाणी वाहून गेलं होतं.

एकदा मुंबईहुन पुणे बस प्रवासात मला एक युवक भेटला. माझा सहप्रवासी म्हणून गप्पाटप्पा सुरु झाल्या. त्याच नुकतंच एंगेजमेंट झालं होतं. लग्नात विनाकारण खर्च टाळावा असा पुरोगामी विषय चघळत आमची चर्चा चालू होती. ओघात त्याने एक मस्त किस्सा सांगितला. मुलगी बापाची लाडकी म्हणून लग्नाच्या कपडे, जोडे इ साठी त्याच्या सासऱ्याने त्याला ₹ २५०००/- दिले होते. ह्या महाशयाने काय करावं? त्याने फ्लॅट 50% ऑफची वेळ साधली, आपले व्यवहारचातुर्य पणाला लावून फक्त ₹ ११५००/- मध्ये सर्व खरेदी केली आणि उरलेले पैशात हनिमून टिकेटस! मला त्याच्या व्यवहार चातुर्याचं खूप कौतुक वाटलं. कारण लग्नसोहळा संपेपर्यंत हे महाशय कुठे कशी बचत करतील मी असा विचार करत होतो.
साधारण २३ वर्षापूर्वीची गोष्ट. मी नुकताच मुंबईत स्थिरावलो होतो. पगार खूप कमी होता पण कपडे खरेदीचा मोठा शौक. मुंबईमध्ये चर्नी रोडच्या एका हॉलमध्ये मोठा सेल सुरु होता. 50% ऑफ असल्यामुळे खूप गर्दी होती. काही टेबलावर घडी न केलेल्या मिक्स कपड्याचे ढीग लावले होते. एका शर्टच्या ढिगावर माझ्यासह ५-६ जण चांगले शर्ट शोधत होते. डिझाईन आवडलं तर साईज नाही आणि साईज असेल तर डिजाईन नाही. दोन्ही भेटले तर किंमत! अशात माझ्या बाजूवाल्या ग्राहकानी दोन चांगले शर्ट उचलले. त्याची निवड खरंच चांगली होती आणि ते अजून एक शर्ट शोधत होते. अशा वेळेस नेमके इतराच्या हातातील कपडेच आपल्याला जास्त चांगले वाटत असतात. माझ्यासोबत तसच झालं. मला त्याच्या हातातील एक शर्ट खूप आवडला होतो, मला तो हवा होता. पण ते काही खाली ठेवत नव्हते. माझी एक नजर ढिगाकडे दुसरी त्या हातातील शर्टकडे. पण थोड्याच वेळात त्याने एक पॅन्ट निवडली आणि तो शर्ट परत ढिगावर ठेवला. क्षणाचाही विलंब न करता मी तो उचलला. दीडशे रुपये देऊन एका पॉलिथिन बॅगमध्ये तो घडी न केलेला शर्ट मी रूमवर घेऊन आलो. मला उद्या ते नेसून मिरवायचं होतं. मी खूपचं आनंदी होतो पण माझा तो आनंद जास्त काळ टिकणार नव्हता. दुसऱ्या दिवशी शर्ट नेसून मी खिशात पेन टाकणार तेंव्हा लक्षात आलं कि त्या शर्टला खिसाच नाही. एका क्षणाला मी वुमन्स शर्ट तर घेऊन नाही आलो, अस वाटलं. पण तसंही काही नव्हतं. मुळात टेलर खिसा लावायचं विसरला होता. तस मुंबईत माणसं स्वतःत एव्हडी गुंग असतात कि दुसऱ्यानं काय घातलं हे बघण्यासाठी त्यांच्याकडे वेळ नसते. तसाच बिनखिशाचा शर्ट मी काही दिवस वापरून टाकला.

एक ब्रँड विकसित करून लोकांच्या हृदयात जागा करण्यासाठी कंपनी करोडो रुपये खर्च करते. लोगो, कॉपीरराईट, पब्लिसिटी आणि जाहिरातीमध्ये करोडो रुपयाची गुंतवणूक केलेली असते. एव्हढच नाहीतर त्या ब्रॅण्डला कंपनी आपल्या मुलाप्रमाणे, तळहातातील फोडाप्रमाणे जीवापाड जपत असते. कोणत्याही परिस्थितीत ब्रॅण्डच नाव खराब होणे त्यांना परवडनारे नसते. म्हणून कधीही ब्रँडेड वस्तू मोठ्या ऑफरवर खरेदी करणे हे चांगलंच. फक्त घेतेवेळेस घाई न करता थोडी काळजीपूर्वक खरेदी करावी. कारण तो गारमेंट किंवा वस्तू आऊट ऑफ फॅशन, खूप जुनी असेल तर खरेदीचा आनंद जास्त काळ टिकणार नाही आणि पश्चाताप होईल.

जे कपडे ब्रँडेड नाही अशा कपड्याच्या सेलमध्ये खरेदी करणे टाळावेत. कारण अशा कपड्याचा कुणी वाली नसतो. मटेरियल, रंग आणि डिझाईन याची शाश्वती नसते. असे कपडे सेकन्ड्स किंवा फौल्टी असू शकतात. तसेच हॉलमध्ये लागलेले सेल हे तात्पुरते असल्यामुळे कपडे परत करायची मुभा नसते, त्यामुळे अशी खरेदी टाळलेली बरी.

©प्रेम जैस्वाल, औरंगाबाद 
premshjaiswal@gmail.कॉम




करियरसाठी उपयुक्त सॉफ्टस्किल्स
               
एक काळ असा होता कि फक्त एक पारंपारिक पदवी कित्येक नोकऱ्या मिळविण्यासाठी पुरेशी होती. कालांतराने नोकरी व उद्योग जगात मोठे बदल होत गेले. १९९०च्या जागतीकीकरणानंतर बहुराष्ट्रीय कंपन्यासाठी सरकारने दार खुले केले. या बहुराष्ट्रिय कंपन्याची भाषा व कार्यसंस्कृति वेगळी होती. तसेच कम्प्यूटर, इंटरनेटमुळे माहिती तंत्रज्ञानात प्रचंड प्रगति झाली होती. भाषा आणि वेगळी संस्कृति असलेल्या या कंपन्याशी समन्वय साधण्यासाठी वेगळ्या स्किलची गरज भासु लागली. हजारो कंपन्या व त्यांचे वेगवेगळे व्यवस्थापन, वितरण-विक्रीकार्यालय तसेच मुख्यकार्यालयात नोकरभरतीची संख्या वाढली. या सोबतच नोकरीसाठी आवश्यक स्किलमधेही आमूलाग्र बदल घडत गेले. 

पूर्वी एखाद्या मुलाखतीची तयारी म्हणजे एक स्वच्छ सफेद सदरा त्याला साजेशी पेंट आणि पॉलिश केलेले शूज एव्हड़च अपेक्षित होतंं. पण आज ते पुरेसं नाही. आज कला, वाणिज्य, वैद्यकीय,अभियांत्रिकीशाखेची पदवी असो की व्यवस्थापनशाखेची, फक्त महाविद्यालयात पुस्तकाद्वारे शिकविले जाणारे शिक्षण म्हणजेच 'हार्डस्किल' नोकरीसाठी पुरेशी नाही. एका सर्वेनुसार नोकरी-व्यापारात यश मिळविण्यासाठी ८०% सॉफ्टस्किल आणि फक्त २०% हार्डस्किलच कामी येते. थोडक्यात यशाच उंच शिखर गाठण्यासाठी हार्डस्किलच्या जोडीला 'सॉफ्टस्किल' ची नितांत गरज आहे.  किंबहुना ज्यांच्याकड़े अप्रतिम सॉफ्टस्किल आहेत अशा व्यक्ति औपचारिक पदवी न घेता जुजबी शिक्षण घेवूनही इतरांच्या पुढे गेलेल्या आहेत. काही लोकामधे जन्मजातच सॉफ्टस्किलचे गुन आढळतात तर काही लोकांनी कमकुवत आर्थिक, सामाजिक परिस्थितीशी दोन हात करत या सॉफ्टस्किलचे गुन अंगिकारले असतात आणि त्यांच्या प्रगतिचा आलेख सुसाट चढताच असतो.

एलिजिबल आणि एम्प्लॉयेबल मधील फरक काय?

आज दरवर्षी लाखो विद्यार्थी अभियांत्रिकी,तंत्रशिक्षण, वास्तुशास्त्र आणि इतर पद्व्या घेवून बाहेर निघतात पण या हार्डस्किलच्या ज्ञानामुळे ते फक्त नोकरीसाठी पात्र (एलिजिबल) ठरतात, नोकरीयोग्य(एम्प्लॉयेबल) नाही! कारण नोकरीसाठी अत्यावश्यक अशी 'सॉफ्टस्किल्स् त्यांच्याकड़े नसते. उदाहरण द्यायचे तर एखाद्या कंपनीला दहा पदवीधर अभियंते निवडायाचे असतील तर आज घडिला लाखो अभियंत्याकड़े त्या नोकरीची 'पात्रता'असते, पण मुलाखतीत जे निवडले जातात तेच फक्त 'नोकरीयोग्य' असतात.

शिक्षणातूनच सॉफ्टस्किल असावी

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर म्हणाले होते 'शिक्षण हे वाघिनीच दूध आहे जो ते प्राशन करील तो गुरगुरल्या शिवाय राहणार नाही' पण आज पदवीधरातही हा गुन दिसत नाही.  शिक्षण मग ते प्राथमिक, माध्यमिक असो की पदवी-पदव्योतर, ज्ञानार्जन करत असतानाच विद्यार्थ्यांची एकंदरित जड़नघडन अशी व्हावी कि समाज आणि उद्योग जगात वावरताना, इतरांशी संवाद, व्यवहार करताना त्यांना कोणतीही अड़चन येवू नये हे अपेक्षित आहे. ज्ञानार्जन करत असतानाच वातावरन आणि संस्कार असे व्हावे कि नोकरीयोग्य कौशल्याचा त्यात अंतर्भाव असावा. विद्यार्थी शाळा महाविद्यालयात वावरत असताना  गुरु, शिक्षक किंवा अध्यापकांचे संस्कार त्यावर होत  असतात. आजच्या धकाधकीच्या जीवनात विभक्त कुटुंबपद्धतीत पालकाना पुरेसा वेळ नसल्यामुळे जीवनमूल्य तसेच 'सांस्कृतिक पालकत्वाची' जबाबदारी आपसुकच शालेय शिक्षकावर येवून पड़ली आहे. तसे बघता शाळा महाविद्यालात घेण्यात येणाऱ्या निरनिराळया क्रीड़ास्पर्धा, वाद-विवादस्पर्धा, नाट्यस्पर्धा, सांस्कृतिक कार्यक्रम, राष्ट्रीय समाज सेवा, एनसीसी याद्वारेसुध्दा विद्यार्थीची शारीरिक, मानसिक आणि बौद्धिक जड़नघडन होवून त्यांचा  व्यक्तिमत्व विकास होने अपेक्षित आहे.  काही उच्च आयआयटी-एनआयटी, आयआयएम् सारख्यासंस्था सोडल्या तर इतर ठिकाणी हे घड़ताना दिसत नाही. आजही उच्चस्तरीय ओद्योगिक संस्थेच्या विद्यार्थ्याना सुट्टीच्या कालावधीत ते शिकत असलेल्या विषयासंबंधित उद्योगात 2-3 महिने 'इंटर्नशिप' करने आवश्यक आहे. या मागे दोन उद्देश असतात एक म्हणजे चारभिंतीच्या बाहेर निघुन उद्योग जगात कसं वावरायचं याचं प्रशिक्षण घेनं आणि दूसरं म्हणजे शिकत असलेल्या विषयाचे प्रात्यक्षिक ज्ञान.    थोडक्यात महाविद्यालयात 'हार्डस्किल' आणि इंटर्नशिप मधे सॉफ्टस्किल अशी ती सांगड असते. एव्हड़च नाही तर उच्चशिक्षण संस्थेमधे वर्षभर घेण्यात येणाऱ्या विविध स्पर्धा, क्लब, सेमिनार आणि संमेलन यामधे विध्यार्थी तावूनसुलाकुन निघत असतात, आपसूकच त्यांचा व्यक्तिमत्व विकास होतो आणि ते जीवनात सफल होतात.

पण आज शिक्षणाची दशा नि दिशा बघता, काही मोजक्या खाजगी शिक्षणसंस्था सोडल्या तर इतर शैक्षणिक संस्थेत असे घड़ताना दिसत. आज कोणत्याही शहरात बोटावर मोजण्याइतक्याच शाळा-महाविद्यालय असे सापड़तील कि जिथे दर वर्षी नियमित क्रीड़ास्पर्धा, सांस्कृतिक कार्यक्रम ईमानइतबारे घेतले जातात. त्यास् फक्त शिक्षक किंवा विद्यार्थ्याच जबाबदार आहे असे म्हणणे चुकीचे ठरेल. मुळात शाळा संचालकाचे उदासीन धोरण तसेच शाळेला मैदान किंवा सांस्कृतिक कार्यक्रमासाठी जागेची अड़चन असते. तसेच परिक्षेच्या अभ्यासात मुलगा मागे राहील, 'कमी गुण म्हणजे आपण मागे' मग नसल्या भानगडी कशाला? म्हणून काही पालकमंडळी या बाबतीत उदासीन असतात. उच्चमाध्यमिक विज्ञानशाखेच्या वर्गाचा विचार केला तर परिस्थिति खूपच भिषण आहे.  मग इतर सांस्कृतिक कार्यक्रम तर सोडाच एकही विद्यार्थी महाविद्यालयिन वर्गात उपस्थित असताना दिसत नाही.  मग त्यावर शिक्षक किंवा त्या महाविद्यालयातील अध्यापकाचे संस्कार तरी काय पड़तील. त्यामुळे सध्याच्या शिक्षणपद्धतीत विद्यार्थ्यांचा व्हावा तसा 'व्यक्तिमत्व विकास' होताना दिसत नाही.  मग असे विद्यार्थी जेंव्हा पुस्तकीपदवी घेवून नोकरीनिम्मित बाहेर पडतात तेंव्हा त्यांना इंग्रजीभाषेसहित बऱ्याच अडचणीला तोंड द्यावे लागते. ग्रुप डिस्कशन तर सोडा पण मुलाखतीत विचारण्यात येणाऱ्या साध्या प्रश्नाचे उत्तरही ते देवू शकत नाही आणि ते मागे राहतात. आणि यदा कदाचित निवडलेही गेले तर उद्योगजगात वावरताना त्यांना आपले वरिष्ठ तसेच विविध विभागातील अधिकारी यांच्याशी समरस होतांना इंग्रजी संभाषण, देहबोली, पेहराव आणि इतर अडचणी येतात.

 आज 'स्टार्टअप' आणि 'मेक इन इंडिया'च्या युगात कला, वाणिज्य किंवा विज्ञान शाखेच्या पद्व्या काय आणि खाजगी अभियांत्रिकी शाखेच्या पद्व्या काय ह्या कूचकामी ठरत आहे. त्यामुळे आज देशाचे माननीय पंतप्रधान मोदी यानी आपल्या अनेक भाषणात सॉफ्टस्किलचे महत्व सांगितले आहे, आणि ते आवश्यकच आहे. आपण किती शिकलात यापेक्षा आपल्याला काय काम येतं किंवा आपण कुणाच्या कामी येऊ शकतो का यास जास्त महत्व आहे.   कदाचित हाच धागा पकडून उद्योगजगतात नोकरी शोधताना अड़चन येवू नये म्हणून परवा सादर झालेल्या केंद्रीय अर्थसंकल्पात केंद्रीय अर्थमंत्री श्री अरुण जेटली यांनी 'सॉफ्टस्किल' साठी वेगळी तरतूद केली आहे.

तेंव्हा आज गरज आहे कि विद्यार्थ्यानी ते शिकत असलेल्या 'हार्डस्किल' सह नोकरी उपयोगी 'सॉफ्टस्किल' वरही  तेव्हड़ाच भर दयावा जेणेकरून उद्या नोकरी मिळविणे तसेच नोकरीत बढ़ती मिळविणे सोपे जाईल. सॉफ्टस्किल हे काही पुस्तकिज्ञान नसून एक अंगिकारावे असे गुन आहेत. मानसिक इच्छा, प्रबळ जिज्ञासा,विवेकशिलता, निरन्तर अभ्यास यामुळे आपला व्यक्तिमत्व विकास घडून तुम्ही इतरापेक्षा काही विशेष घडवू शकता. 'सॉफ्ट्स्किल्स म्हणजे व्यक्तिमधील व्यक्तित्वात सामावलेले असे काही विशिष्ट कौशल्य-गुन आहेत कि जे तुम्हाला इतरापेक्षा वेगळा विचार, वेगळे कार्य करण्याची क्षमता देतो. त्यामुळेच आज सिफ्टस्किलचा सगळीकडे बोलबाला आहे आणि कुणीही यामधे मागे पड़ता कामा नये.
   
मग ह्या सॉफ्टस्किल कोणत्या?

तसा ह्या विषयाचा अवाका खुप मोठा आहे आणि जसजसा शिक्षण आणि उद्योग तंत्रज्ञानात बदल होत आहे तसे सॉफ्टस्किलचे महत्व वाढत आहे. त्यात आज कंप्यूटर आणि इंटरनेटस्किलचीही भर पडली आहे. तरी काही अत्यंत आवश्यक अशा सॉफ्टस्किल खालीलप्रमाणे आहेत.

१. संभाषण आणि संवादकौशल्य
कॉर्पोरेट जगात दोन प्रकारे संवाद होत असतात. एक तोंडी आणि दूसरे लिखित संवाद. या शिवाय देहबोली आणि हावभाव हे सुद्धा संवादाचाच भाग आहे. नोकरी करताना आपला संवाद हा अन्तर्गत वरिष्ठ, सहकर्मचारी, कनिष्ठ तसेच बाहेरील ग्राहक तसेच इतर जगाशी होत असतो.   तसेच  इंटरव्यूह, प्रेसेजेन्टेशन, मिटिंग आणि ग्रुप डिस्कशनमधे भाग घेताना इतरांचे विचार समजून घेण्याची क्षमता, श्रवणकौशल्य, इंग्रजी भाषेवरील प्रभुत्व  आणि आवाजातील चढ़-उतार याकड़े लक्ष देने आवश्यक आहे. उत्कृष्ट संभाषण, भाषा आणि सुसंवाद  ही यशाची गुरुकिल्ली आहे. सांघिक नेतृत्वगुणासाठी उत्कृष्ट संवादकौशल्य आवश्यकच आहे. कम्प्यूटर आणि इंटरनेटच्या युगात कार्यालयीन लिखित संवादामधेही आमूलाग्र बदल घडला आहे. 'पेपरलेस ऑफिस'ची संकल्पना सगळीकड़े रुजू होत असल्यामुळे ईमेल, च्याटिंग, व्हिडियो कॉन्फ्रेंस, ट्विटर तसेच इंटरनेटच्या सर्व इतर स्किल्सचा परिपूर्ण वापर करता येणे अत्यंत आवश्यक झाले आहे.

२. आत्मविश्वास व स्वयं प्रेरणा
कोणत्याही काम करताना आत्मविश्वास व सकारात्मकतेने पुढे येवून हाताळने ही एक चांगली सॉफ्टस्किल आहे. हे गुन तुमची कामाप्रति निष्ठा तसेच समर्पण दाखवते.

३.  प्रभावशालि नेतृत्वगुण
कॉर्पोरेट जगात सांघिक कार्य करण्यासाठी तसेच बढ़ती मिळविण्यासाठी तुमच्याकड़े नेतृत्वगुण असणे आवश्यक आहे. तुमच्याकड़े इंग्रजीभाषेवर चांगले प्रभुत्व, सकारात्मकता, उत्कृष्ट संवादकौशल्य, कामाप्रति निष्ठा, इतराना प्रेरित करणारे व्यक्तिमत्व असे गुण असतील तरच तुम्ही एखाद्या संघाचे नेतृत्व करु शकता.

४.  जबाबदारी घेण्याची क्षमता
आपन करत असलेल्या चांगल्या कामाचे श्रेय फक्त स्वतःकड़े न घेता ते एक संघाला देणे,  आणि काही घडलेल्या चूकांची जबाबदारी इतरावर न ढकलता प्रामाणिकपणे स्वतः वर घेणे हीसुद्धा एक सॉफ्टस्किलच आहे जो तुमचा स्वभाव दर्शविते.

५.   योग्य निर्णय घेण्याची क्षमता
तुम्ही जेंव्हा एका संघाचे कप्तान असता तेंव्हा योग्य वेळी योग्य निर्णय घेण्यातच तुम्ही काम करत असलेल्या कंपनीचा फायदा असतो तेंव्हा हा गुन एका व्यवस्थापकामधे असणे जरूरी आहे.

६.  सांघिक व्यवस्थापन कौशल्य
कोणतेही काम करताना एक टिमची गरज असते. एखाद्या टिमचे कार्य तेंव्हाच चांगले होते जेंव्हा त्या संघात सुसंवाद, भावना, मनोमिलन चांगले असते आणि मतभेद नसतात.

७.  समस्या सोडवण्याची सक्षमता
कॉर्पोरेटमधे टिमवर्क करताना बऱ्याच वेळा अशी समस्या येते कि त्या समस्यचे थंड डोक्याने विचार करून योग्य तो पर्याय निवडावा लागतो. अशा वेळेस सर्व टिम मेंबरना विश्वासात घेवून योग्य तो निर्णय घेता येणे ही एक सॉफ्टस्किलच आहे. अटीतटीच्या क्रिकेट सामन्यात कप्तानमधे हा गुन बघायला मिळतो.

८. वेळेचा व्यवस्थापन आणि तणाव झेलण्याची क्षमता
कॉर्पोरेटमधे काम करताना बऱ्याच वेळेस दिलेले कामाची वेळमर्यादा 'डेडलाइन' दिलेली असते अशा वेळेस तणावाखाली न वावरता कामाचे योग्य नियोजन करून डेडलाइनच्या आत काम करने आवश्यक असते. ही एक सॉफ्टस्किलच आहे.

९. जोखिम घेण्याची क्षमता
बऱ्याचदा जास्त जोखिम जास्त फायद्याची असते. कॉर्पोरेट आणि उद्योग-व्यवहारात अनेक वेळा जोखिम घ्यावी लागते अशा वेळेस आपले मानसिक संतुलन न बिघडवता योग्यनिर्णय घ्यावा लागतो.

या शिवाय नेगोशिएशन, फ्लेक्सीबिलिटी अशा काही सॉफ्टस्किलस आहेत ज्या कॉर्पोरेटमधे आवश्यक आहेत. त्या आत्मसात करून तुम्ही 'अपडेटेड' होणे आवश्यक नाहीतर 'आउटडेटेड' समजले जाणार.  

पिझ्झा, तरुण पिढीचं आवडतं खाद्य. पिझ्झाचे पिझ्झाबेस आणि टॉपिंग असे दोन मुख्य घटक असतात. पिझ्झाची किंमत टॉपिंग ठरवत असतो. जेव्हडं महाग, चांगलं यम्मी टॉपिंग तेव्हडी किंमत जास्त.  थोडक्यात मैद्याच्या बेचव पिझ्झाबेसला विशेष महत्व नसतंच आणि फक्त पिझ्झाबेस खायला कुणालाच आवडणार नाही. 

हल्ली महाविद्यालयाकडून मिळणार पदवीच शिक्षण म्हणजे फक्त बेचव पिझ्झाबेस! विद्यार्थी जो पर्यन्त त्यावर सॉफ्टस्कीलचं छानसं टॉपिंग करत नाही तोपर्यंत त्याला काहीही महत्व नसतं. नोकरी देणाऱ्या संस्था टॉपिंग म्हणजे सॉफ्टस्कील बघूनच मोठं मोठे पॅकेज देत असतात. 

तेंव्हा महाविद्यालयात शिकणारे कला, वाणिज्य विज्ञानशाखेचे विद्यार्थी असो कि वैद्यकिय, अभियांत्रिकी, सीए, सीएसचे विद्यार्थी यांनी वेळीच सॉफ्टस्किल्सचे महत्व समजून त्या दिशेने वाटचाल करावी. नियमित अवांतर वाचन, व्यायाम, संगणक-इंटरनेट प्रशिक्षण घेवून विविध कार्यशाळेत भाग घेत रहावे. तसेच वक्तृत्त्व, नाट्य, वाद-विवाद स्पर्धेमध्ये भाग घेत रहावे. एव्हडेच नव्हे तर जोपर्यंत नोकरी मिळत नाही तोपर्यंत अनुभव म्हणून एखाद्या खाजगी कंपनी, एनजीओमधे पार्टटाइम नोकरी करून स्वतःस अपडेट करत रहावे जेणेकरून उद्या कॉर्पोरेटमधे नोकरी मिळविणे सूकर होईल.


© प्रेम जैस्वाल. मो.९८२२१०८७७५
(लेखक 'एस्पी अकॅडमी' औरंगाबाद या शैक्षणिक संस्थेचे संचालक असून करियर विषयक सल्लागार आहेत.)


   

Thursday, 10 August 2023

गुजरा हुवा जमाना आता नही दोबारा...

 गुजरा हुवा जमाना..

सोपं गणित आहे मित्रांनो, चालू वर्ष २०२३ मधून  दहावीचं वर्ष १९८५ वजा केले तर ३८ वर्षाचा काळ मागे पडतो!  एक तप म्हणजे बारा वर्ष या हिशोबाने तब्बल तीन तपापेक्षा जास्त काळ लोटला आहे आपण सर्वांची ताटातूट होऊन !

शाळा सोडते वेळीस आपण सर्वच दहावीत होतो.  त्या काळची दहावी आजच्या सारखी ९९% गुण देणारी नव्हती. डिस्टिन्शन तर दूर ऑल क्लियर उत्तीर्ण होण्याचे वांधे होते. दहावी परीक्षेच्यापूर्वी आपल्याला 'पुढील दिवे' लावण्यासाठी मोकळा करणारा ' निरोप समारंभ' झाला होता कि नाही मला नेमकं आठवत नाही. मानवी मेंदूने किती आठवणी साठवून ठेवायच्या शेवटी त्यालाही मर्यादा आहेतचकी.  नुकतच टळलेलं करोना सारखं मोठं संकट झेलून, त्यातून शाबूत वाचून आठवणीचा उजाळा करण्यासाठी आपण पुन्हा भेटत आहोत हे ही काही कमी नाही.  आपले बरेच वर्गशिक्षक आणि वर्गमित्र आज हयात नाहीत याच मला दुःख होतं. त्यांना भावपूर्ण श्रद्धांजली वाहून मी पुढे लिहितो. 

दहावीनतंर एखाद्या माळेचा धागा तुटून मणी विखरून पांगून जावे तसं या जगात आपण विखरलो गेलो होतो.  आणि त्या विखूरलेल्या काही मोत्यापैकी काहींना पुन्हा एका माळेत ओवण्याचं मोठं काम आपल्यापैकी काही मित्र करत आहेत. त्यांच्या या कार्यास माझा सलाम व शुभेच्छा.

थोड्या आठवणी.....

आमची तुकडी दहावी-ड होती. एक तर जिल्हा परिषद शासकीय शाळा त्यात 'ड' तुकडी त्यामूळे हिंगोली शहरात वावरतांना किंवा ट्यूशनमध्ये आम्हाला कुणी जास्त भाव देत नसे.  जनमानसात ड म्हणजे ढ काही असाचं एक समज होता. आणि तो गैरसमज मुळीच नव्हता. दहावी बोर्डात फक्त ११ विद्यार्थी पूर्ण विषयात उत्तीर्ण झाले होते! मित्र हो, या रेकॉर्ड ब्रेक निकालावरूनच आपण अंदाज बांधू शकता कि आम्ही आणि आमचे प्रिय वर्गमित्र किती अभ्यासू होते! थोडक्यात आमची माळ फक्त मोत्याची नव्हती तर त्यात 'हिरे, मानके, पाचू'  सारख्या मौल्यवान खड्यांचा समावेश होता.

मला आठवतं, मराठी (कि इंग्लिश) भाषेचा क्लास होता. आमचे वर्गशिक्षक सर नेहमीप्रमाणे हजेरी घेत होते.  काही वेळातच आमच्या क्लासच्या बॅकबेंच मंडळीने वेगवेगळ्या प्राण्याचे आवाज काढायला सुरुवात केली. सर जाम चिडले रागावले कि काही वेळ मुलं गप्प बसायची. शिकवायला सुरुवात केली कि पुन्हा विविध प्राण्याचे आवाज सुरु. मग सर रागावून दात खाली ओठ दाबून 'मूर्ख, गटाराचे किडे' असं बरंच काही बोलायचे. एव्हडं बोलुनही काही फरक पडत नसे. विद्यार्थी मनावर घेत नाहीत म्हणून ते आमची भविष्यवाणी सांगायचे , 'मूर्खांनो, बोर्डाच्या परीक्षेत बघेणं मी काय दिवे लावतात ते! पस्तीस पस्तीस पस्तीस पस्तीस बावन बावन, घ्या पेढे! असंच घडणार आहे तुमच्या सोबत!' काही मिनिटे क्लास शांत व्हायचा कि पुन्हा पाठीमागून बारीक वेगवेगळ्या प्राण्याचे आवाज! विशेष म्हणजे कुणाचंही नाव कुणी सांगत नसे.

रोजचाचं वैताग म्हणून एके दिवशी देशमुख सरांनी आमच्या ड वर्गाची तक्रार हेडमास्टर श्री सेवेकर सराकडे केली. थोड्याच वेळात ते हेडमास्टर  सराना वर्गात घेऊन आले. काही मिनिटे पिन ड्रॉप सायलेंस! अगदी काहीच घडलं नाही असं. रागावलेले हेड-मास्टर किंचितशः नाकात बोलल्या सारखं आमच्या क्लासवर बरसले,'कोणं रे तो मूर्ख? तुम्ही शिकायला येता कि गोंधळ घालायला? ' असं म्हणत त्यांनी सर्वांना केनचा प्रसाद वाटला. अर्थात तो आमच्याही वाट्याला आला, काहीही उपदव्याप नं करता. तसं उपदव्याप करण्यासाठी  लागणार धाडस आमच्यात नव्हतंच. 'पुन्हा आवाज केल्यास मी केनने खूप मारीन' अस दम देऊन ते बाहेर गेले. दोनच मिनिटात 'खिखीखी...' पुन्हा तोच प्रकार सुरु झाला. थोडक्यात अशा भन्नाट वर्गमित्रासोबत आम्ही तीन वर्ष शिकलो. त्यामुळे  मी आधीच नमूद केलं कि आमच्या क्लासमध्ये फक्त हिरे नव्हते.

आजही हिंगोली शहरामध्ये फिरतांना बऱ्याचदा बहूविध शाळेसमोरून जावं लागतं. थोडी दुरावस्था झालेली ती इमारत, प्रांगण आणि  फाटक बघून काही क्षणासाठी का होईना मन भुर्रकनं भूतकाळात जातं. त्या काळी खूप मोठी वाटणारी ती वास्तू आज खूप छोटी वाटते. कधी काळी लांब वाटणारं अंतर आता अगदी जवळ वाटतं. फ्लॅशबॅक बघावा तशा एक एक करून अनेक आठवणी चित्ररूपात डोळ्यासमोर येतात. मग ती दुपारची सुट्टी आठवते.  मधल्या सुट्टीतील दहा-वीस पैशाचे खरमुरे-बटानेसुद्धा त्या आठवणीतून सुटत नाही. अगदी वीस पैशाची मीठ टाकलेली ती एक माप जांभळं किंवा ती गोडआंबट बोरं सुद्धा आठवतात.  ढगळा कुर्तापायजमा घातलेला 'खरमुरे-बटाने, बटाने-खरमुरे'  म्हणतं विकणारा तो लंगडा मामू मला आजही आठवतो.

दहावीनंतरच्या ताटातुटीनतंर काही ठराविक वर्गविद्यार्थी मित्रांची कुठनं कुठे भेट व्हायची. मग त्या वर्गमित्राकडून इतर काही मित्राची तुटकशी माहिती मिळायची, पण ती सांगोपांगी. मधल्या काळात इंटरनेट फेसबुकमूळे काही जण संपर्कात आलेत.  प्रचंड उत्सुकता असूनही या मधल्या काळात काहीच कळायला मार्ग नव्हता.  पण मित्रांनो आता असं नाही. ' कालाय तस्मै नमः' फक्त नाव जरी माहीत पडलं तरी गुगलच्या कृपेनें काही क्षणात त्याची किंवा तीची कुंडली समोर येते ती सुद्धा फोटो सहित!  खरं तर आपण सर्वांनी आपल्याला पुन्हा जोडण्यास मदत करणाऱ्या इंटरनेट फेसबुक व्हाट्सअप सारख्या नवीन तंत्रज्ञानाचे आभार मानायला हवे.

या 'गेट टुगेदर'च्या निमित्ताने सर्वांना एक दुसऱ्याबद्दल जाणून घेण्याची उत्सुकता निर्माण होणे साहजिक आहे. वयानुसार प्रश्नाचं स्वरूपसुद्धा बदलतं.  या ३८ वर्षाच्या काळात काय काय घडलं असेल? दहावीनतंर कोण वर्गमित्र कुठं स्थायिक झाला? त्याचा पुढील  शैक्षणिक प्रवास कसा झाला असेल?  तो पुढं शिकला कि काही कारणाने त्याचा शैक्षणिक प्रवास खुंटला? तो 'खूपच अभ्यास' करायचा मग त्याने किती दिवे लावले? आणि शेवटी त्यांची मुलं काय करत असतील अशा अनेक प्रश्नाची उकलं होईल.  अर्थात शिक्षणाचा आणि जीवनात यशस्वी होण्याचा काहीही संबंध नसतो हे सर्वांना समजलंच असेल. 

आता थोडं स्वतःबद्दल...

मी एक साधारण निरूपद्रवी विद्यार्थी होतो. आमचं वर्गातील अस्तित्व हजेरीच्या वेळीस 'यस सर' एव्हडं म्हणण्यापूरतं काय ते इतरांना जाणवायचं. वर्गात इतर वर्गमित्राप्रमाणे मस्ती किंवा गोंधळ घालण्या इतकी डेअरिंग किंवा धाडस माझ्यात नव्हतं.  दहावीला जेमतेम ६८ टक्क्यानी मी उत्तीर्ण झालो.  नतंर अकरावी सायन्संसाठी सरस्वतीभुवन महाविद्यालय औरंगाबादला प्रवेश घेतला. हिंगोलीहुन एसबी औरंगाबादशी जुळवून घेतांना बराच त्रास झाला. आम्ही आधीच बुजरे, धाडस कमी असल्याने तालुक्याचा ठिकाणाहून औरंगाबादसारख्या शहरात शिकतांना बरंच दडपण यायचं. हॉस्टेलमधील बरेच विद्यार्थी विविध ठिकाणाहून दहावीला मेरिटमध्ये उत्तीर्ण होऊन आलेले होते.  महाविद्यालयात वावरतांना कॉन्व्हेंट मधून आलेली मुलं-मूली, इंग्लिशमध्ये शिकविणारे उच्चशिक्षित प्राध्यापक, मोठया बिल्डिंग्स इत्यादी गोष्टीच प्रचंड दडपण यायचं. भाषा सोडता सर्वच प्राध्यापक इंग्लिशमध्ये शिकवायचे त्यामुळे सुरुवातीचे किती तरी तास सर भौतिकशास्त्र शिकवत आहेत का गणित कि रसायनशास्त्र हे आम्हांस नाही कळायचं.  वर्गमित्रांशी संवाद साधतांना चेमिस्ट्री, टॉरक्यू अशी आमची तारांबळ उडायची. काही मराठी मिडीयमचे विद्यार्थी आमच्याही पुढं होते. ते सरळ सरळ माले (male), फेमाले(female) असा उच्चार करायचे. इतरांच्या शुद्ध इंग्लिशपुढं आमच्या अमृताशी पैजा जिंकणाऱ्या मराठी मेडीयमचा टीकाव लागत नसे. पुढं डिक्शनरीने आमचं काम सोपं केलं.

एसबी सायन्स कॉलेजचा पहिला तास मला अजूनही आठवतो.  आमची 'सी' तुकडी होती. मुला-मुलींनी खचाखच भरलेला क्लासमध्ये सर शिकवत होते. चालू तासात थोडा भितभीत मी आत शिरलो.  कोणत्या तरी मागच्या डेस्कवर जाऊन पटकन बसावं म्हणून मी पाठीमागे जात होतो. पुढं बसावं तर आपल्याला सर प्रश्न विचारतील ही भिती होती. थोडं मागे जाऊन डावीकडे नजर फिरविली तर एका डेस्कच्या खिडकी जवळच्या कोपऱ्यात माझाच दहावी 'ड' वर्गाचा मित्र हुसेन बसलेला दिसला. बघून खूपचं आश्चर्य आणि आनंद झाला. आता कुणी तरी आपल्या शाळेचा, अगदी जवळचा भेटल्यामूळे बरीच भिती कमी झाली. तो पहिला तास कोणत्या विषयाचा होता आणि सर काय शिकवत आहे हे मला इतरांना विचारावं लागलं होतं.

आता थोडं फास्ट फॉरवर्ड. बारावी सायन्स नतंर पीसीबी मध्ये ठीकठाक गुण मिळुन मी पास झालो.  शासकीय अभियांत्रिकी विद्यालयाचा फॉर्म भरण्यास उशीर केल्यामुळे शेवटी पुसद येथील अभियांत्रिकी महाविद्यालयातून इलेक्ट्रॉनिक्स इंजिनियरिंग केली. चार वर्षाच्या इंजिनियरिंग नतंर दोन वर्ष पुन्हा औरंगाबादला व्यवसाय केला आणि त्यानंतर सात वर्ष मुंबईच्या कंपन्यामध्ये जॉब केला. जॉबच्या निम्मिताने बऱ्याचदा इज्राईल किंवा अमेरिकन लोकांसोबत काम करण्याचा योग आला.  दोन वर्ष औरंगाबादला असतांना मी पार्टटाईम एमपीएस्सीची परीक्षा दिली होती. माझ्यासोबतचे तीन बॅचमेट डेप्युटी कलेक्टर झालेत. त्यापैकी एक -वर्षा ठाकूर आज लातूरची कलेक्टर आहे. सतत बदलीवर असणारे आयएएस तुकाराम मुंढेचे वडीलबंधू ऍडिशनल कलेक्टर श्री अशोक मुंढे(निवृत्त) हे माझे एमपीएससी बॅचमेट होते, असो. 

नोकरी आणि व्यवसायानिमित्ताने हिंगोलीला नेहमी चक्कर व्हायची, आजही होते. त्यामुळे हिंगोलीच्या काही मित्राबद्दल थोडी फार  माहिती मिळायची. वैद्यकीय उपकरणाच्या विक्री-सेवा व्यवसायाच्या निम्मिताने मी महाराष्ट्रभर फिरलो. व्यवसायानिमित्त देशाच्या बऱ्याच मिलिटरी हॉस्पिटल जसेकी चंदीमंदिर, दिल्ली, पुलगाव, देवळाली, डिआरडिओ ला सेवा देण्याचा योग आला. काही दिवस जवानासोबत राहण्याचा योग आला. सात वर्ष जीवाची मुंबई करून १९९८ नतंर मी मुंबईला 'गुड बाय' करून औरंगाबादला स्थायिक झालो.थोडक्यात पेडगावसारख्या छोटया खेड्यातून निघून हिंगोली-औरंगाबाद-पुसद-औरंगाबाद-मुंबई-औरंगाबाद असा प्रवास करत माझं जहाज औरंगाबादच्या बंदरावर स्थिरावलं.

कुणाचंही जीवन 'संथ वाहे कृष्णामायी...' प्रमाणे संथ नसतं. आणि तसं असायलाही नको. उंच लाटांना तोंड देत नाही तो पर्यंत आपल्याला संथ पाण्याचं महत्वसुद्धा कळत नाही.  माझ्या या छोट्याशा प्रवासात बरीच मंडळी भेटली तसे बरे-वाईट अनुभव आलेत. त्याचा हिशोब काही पानं खरडून मांडता येणार नाही. 

जो पर्यंत पोटा-पाण्याचा प्रश्न मिटत नाही तो पर्यंत  माणसाला इतर उद्योग सुचत नाही . कुणी म्हंटल आहे 'भुके पेट न होवे गोपाला'. औरंगाबादला स्थायिक झाल्यानंतर वाचन्याची आवड निर्माण झाली. सततच्या वाचनानतंर वाचनाच्या पेरणीतून पुढं लिहिण्याचं पिक बहरलं आणि ते बहरत गेलं.  काही दिवस ब्लॉगर आणि नतंर विज्ञान-तंत्रज्ञान विषयावर एका मराठी दैनिकांसाठी मी स्तंभलेखन केलं. हल्ली 'स्मार्ट उद्योगमित्र' या एमसीईडी च्या उद्योगाविषयींच्या मासिकामध्ये मी अधून मधून लिहीत असतो, असो. शेवटी एव्हढच सांगावं वाटतं -

 ‘‘जो जो जयाचा घेतला गुण। तो तो गुरु म्यां केला जाण। गुरुसी आले अपारपण। जग संपूर्ण गुरु दिसे।।ज्याचा गुण घेतला। तो सहजें गुरुत्वा आला। ज्याचा गुण त्यागरूपें घेतला। तोही गुरु झाला अहितत्यागें॥

आता पर्यंतच्या प्रवासात ज्या गुरूंनी आम्हाला शिकवलं किंवा ज्या वर्गमित्राच्या सहवासात आम्ही घडलो किंवा न बिघडलो त्यांचे मानावे तेव्हढे आभार कमीच!

या व्हाटसप ग्रुपमध्ये आपल्या जुन्या फोटोला जोडूनच एक नवीन फोटो पोस्ट केला तर इतरांना समजण्यास थोडी मदत होईल.  त्यासोबतचं थोडी स्वतःविषयी माहिती दिली तर अजून चांगलं. त्याचा फायदा असा कि २६/२७ ला  'भेटणारा किंवा भेटणारी' विद्यार्थी किंवा विद्यार्थिनी ही 'तीच किंवा तोच' याची इतरांना खात्री होईल. तीन तपानंतरची ती भेट, उगीच गोंधळ उडायला नको!


प्रेम बडपसरिया(जैस्वाल) दहावी -ड 
ह.मु. औरंगाबाद, मो.९८२२१०८७७५
[ ESPEE INFOTECH & ACADEMY]